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यमे॑रि॒रे भृग॑वो वि॒श्ववे॑दसं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या भुव॑नस्य म॒ज्मना॑। अ॒ग्निं तं गी॒र्भिर्हि॑नुहि॒ स्व आ दमे॒ य एको॒ वस्वो॒ वरु॑णो॒ न राज॑ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam erire bhṛgavo viśvavedasaṁ nābhā pṛthivyā bhuvanasya majmanā | agniṁ taṁ gīrbhir hinuhi sva ā dame ya eko vasvo varuṇo na rājati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। आ॒ऽई॒रि॒रे॒। भृग॑वः। वि॒श्वऽवे॑दसम्। नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। भुव॑नस्य। म॒ज्मना॑। अ॒ग्निम्। तम्। गीः॒ऽभिः। हि॒नु॒हि॒। स्वे। आ। दमे॑। यः। एकः॑। वस्वः॑। वरु॑णः। न। राज॑ति ॥ १.१४३.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:143» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे जिज्ञासु पुरुष ! (यम्) जिस (विश्ववेदसम्) अच्छे संसार के वेत्ता परमात्मा को (भृगवः) विद्या से अविद्या को भूँजनेवाले (एरिरे) सब ओर से जाने वा (यः) जो (एकः) एक अति श्रेष्ठ आप्त ईश्वर (मज्मना) अत्यन्त बल से (वरुणः) अति श्रेष्ठ के (न) समान (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के वा (भुवनस्य) लोक में उत्पन्न हुए (वस्वः) धनरूप पदार्थ के (नाभा) बीच में अपनी व्याप्ति से (राजति) प्रकाशमान है (तम्) उस (अग्निम्) सूर्य के समान ईश्वर जो कि (स्वे) अपने अर्थात् तेरे (दमे) घररूप हृदयाकाश में वर्त्तमान है उसको (गीर्भिः) प्रशंसित वाणियों से (आ, हिनुहि) जानो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो विद्वानों से जानने योग्य सब में सब प्रकार व्याप्त प्रशंसा के योग्य सच्चिदानन्दादि लक्षण सर्वशक्तिमान् अद्वितीय अति-सूक्ष्म आप ही प्रकाशमान अन्तर्यामी परमेश्वर है, उसको योग के अङ्गों के अनुष्ठान की सिद्धि से अपने हृदय में जानो ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरविषयमाह।

अन्वय:

हे जिज्ञासो यं विश्ववेदसं भृगव एरिरे य एको वरुणो मज्मना वरुणो नेव पृथिव्या भुवनस्य वस्वो नाभा मध्ये स्वव्याप्त्या राजति तमग्निं स्वे दमे वर्त्तमानस्त्वं गीर्भिराहिनुहि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) परमात्मानम् (एरिरे) समन्ताज्जानीयुः (भृगवः) विद्ययाऽविद्याया भर्जका निवारका विद्वांसः। भृगव इति पदना०। निघं० ५। ५। (विश्ववेदसम्) समग्रस्य विदितारम् (नाभा) मध्ये (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (भुवनस्य) लोकजातस्य (मज्मना) अनन्तेन बलेन (अग्निम्) सूर्यमिव स्वप्रकाशम् (तम्) (गीर्भिः) प्रशंसिताभिर्वाग्भिः (हिनुहि) जानीहि (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (दमे) गृहरूपे हृदयाऽवकाशे (यः) (एकः) अद्वितीयः (वस्वः) वसोर्द्रव्यरूपस्य (वरुणः) अतिश्रेष्ठः (न) इव (राजति) प्रकाशते ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यो विद्वद्वेदितव्यः सर्वाऽभिव्यापी प्रशंसितुमर्हः सच्चिदानन्दादिलक्षणः सर्वशक्तिमानद्वितीयोऽतिसूक्ष्मः स्वप्रकाशोऽन्तर्यामी परमेश्वरोऽस्ति तं योगाङ्गानुष्ठानसिद्ध्या स्वस्मिन्विजानीत ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो विद्वानाकडून जाणण्यायोग्य, सर्वात सर्व प्रकारे व्याप्त, प्रशंसेस पात्र, सच्चिदानंद इत्यादी लक्षण, सर्वशक्तिमान, अद्वितीय, अतिसूक्ष्म, स्वयंप्रकाशी, अन्तर्यामी, परमेश्वर आहे त्याला योगांगाच्या अनुष्ठान सिद्धीने आपल्या हृदयात जाणा. ॥ ४ ॥