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म॒न्द्रजि॑ह्वा जुगु॒र्वणी॒ होता॑रा॒ दैव्या॑ क॒वी। य॒ज्ञं नो॑ यक्षतामि॒मं सि॒ध्रम॒द्य दि॑वि॒स्पृश॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mandrajihvā jugurvaṇī hotārā daivyā kavī | yajñaṁ no yakṣatām imaṁ sidhram adya divispṛśam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒न्द्रऽजि॑ह्वा। जु॒गु॒र्वणी॒ इति॑। होता॑रा। दैव्या॑। क॒वी। य॒ज्ञम्। नः॒। य॒क्ष॒ता॒म्। इ॒मम्। सि॒ध्रम्। अ॒द्य। दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् ॥ १.१४२.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अद्य) आज (मन्द्रजिह्वा) जिनकी प्रशंसित जिह्वा है वे (जुगुर्वणी) अत्यन्त उद्यमी (होतारा) ग्रहण करनेवाले (दैव्या) दिव्य गुणों में प्रसिद्ध (कवी) प्रबल प्रज्ञायुक्त अध्यापक और उपदेशक लोग (नः) हम लोगों के लिये (दिविस्पृशम्) प्रकाश में संलग्नता कराने तथा (सिध्रम्) मङ्गल करनेवाले (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्यादि की प्राप्ति के साधक व्यवहार का (यक्षताम्) सङ्ग करते हैं, वैसे तुम भी सङ्ग करो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन धर्मयुक्त व्यवहार के साथ परस्पर सङ्ग करते हैं, वैसे साधारण मनुष्यों को भी होना चाहिये ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथाऽद्य मन्द्रजिह्वा जुगुर्वणी होतारा दैव्या कवी मेधाविनावध्यापकोपदेशकौ न दिविस्पृशं सिध्रमिमं यज्ञं यक्षतां तथा यूयमपि सङ्गच्छध्वम् ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मन्द्रजिह्वा) मन्द्रा प्रशंसिता जिह्वा ययोस्तौ (जुगुर्वणी) अत्यन्तमुद्यमिनौ (होतारा) आदातारौ (दैव्या) देवेषु दिव्येषु गुणेषु भवौ (कवी) विक्रान्तप्रज्ञौ (यज्ञम्) विद्यादिप्राप्तिसाधकं व्यवहारम् (नः) अस्मभ्यम् (यक्षताम्) संयच्छेते (इमम्) (सिध्रम्) मङ्गलकरम् (अद्य) अस्मिन् दिने (दिविस्पृशम्) प्रकाशे स्पर्शनिमित्तम् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो धर्म्येण व्यवहारेण सह सङ्गता भवन्ति तथेतरैरपि भवितव्यम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक धर्मयुक्त व्यवहाराने परस्पर संगती करतात, तसे सामान्य माणसांनीही असावे. ॥ ८ ॥