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स्तृ॒णा॒नासो॑ य॒तस्रु॑चो ब॒र्हिर्य॒ज्ञे स्व॑ध्व॒रे। वृ॒ञ्जे दे॒वव्य॑चस्तम॒मिन्द्रा॑य॒ शर्म॑ स॒प्रथ॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stṛṇānāso yatasruco barhir yajñe svadhvare | vṛñje devavyacastamam indrāya śarma saprathaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्तृ॒णा॒नासः॑। य॒तऽस्रु॑चः। ब॒र्हिः। य॒ज्ञे। सु॒ऽअ॒ध्व॒रे। वृ॒ञ्जे। दे॒वव्य॑चःऽतमम्। इन्द्रा॑य। शर्म॑। स॒ऽप्रथः॑ ॥ १.१४२.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (स्वध्वरे) उत्तम शोभायुक्त (यज्ञे) विद्यादानरूप यज्ञ में (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य के लिये (सप्रथः) प्रख्यात गुणों के साथ वर्त्तमान (बर्हिः) बड़े (देवव्यचस्तमम्) विद्वानों से अतीव व्याप्त (शर्म) घर को (स्तृणानासः) ढाँपते हुए (यतस्रुचः) उद्यम को प्राप्त होते हैं, वे दुःख और दरिद्रपन का (वृञ्जे) त्याग कर देते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - उद्यम करनेवालों के विना लक्ष्मी और राज्य श्री प्राप्त नहीं होती तथा जो अतीव उत्तम विद्वानों के निवास संयुक्त घर में अच्छे प्रकार वसते हैं, वे अविद्या और दरिद्रता को निरन्तर नष्ट करते हैं ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये स्वध्वरे यज्ञ इन्द्राय सप्रथो बर्हिर्देवव्यचस्तमं शर्म स्तृणानासस्सन्तो यतस्रुचो भवन्ति ते दुःखदारिद्र्यं वृञ्जे त्यजन्ति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्तृणानासः) आच्छादकास्सन्तः (यतस्रुचः) प्राप्तोद्यमाः (बर्हिः) बृहत् (यज्ञे) विद्यादानाख्ये (स्वध्वरे) सुशोभमाने (वृञ्जे) वृञ्जते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति तलोपो व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (देवव्यचस्तमम्) देवैर्विद्वद्भिर्व्यचो व्याप्तं तदतिशयितम् (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (शर्म) गृहम् (सप्रथः) प्रख्यातगुणैस्सह वर्त्तमानम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - नह्युद्यमिनोऽन्तरा लक्ष्मीराज्यश्रियौ प्राप्नुतः। ये अत्युत्तमे विद्वन्निवासयुक्ते गृह आवसन्ति तेऽविद्यादारिद्र्ये निघ्नन्ति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - उद्योग केल्याशिवाय लक्ष्मी व राजश्री प्राप्त होत नाही व जे अत्युत्तम विद्वानांचा निवास असलेल्या घरात राहतात ते अविद्या व दारिद्र्य नष्ट करतात. ॥ ५ ॥