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अ॒व॒सृ॒जन्नुप॒ त्मना॑ दे॒वान्य॑क्षि वनस्पते। अ॒ग्निर्ह॒व्या सु॑षूदति दे॒वो दे॒वेषु॒ मेधि॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avasṛjann upa tmanā devān yakṣi vanaspate | agnir havyā suṣūdati devo deveṣu medhiraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒व॒ऽसृ॒जन्। उप॑। त्मना॑। दे॒वान्। य॒क्षि॒। व॒न॒स्प॒ते॒। अ॒ग्निः। ह॒व्या। सु॒सू॒द॒ति॒। दे॒वः। दे॒वेषु॑। मेधि॑रः ॥ १.१४२.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:142» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वनस्पते) रश्मियों के पति सूर्य्य के समान वर्त्तमान ! आप जिस कारण (त्मना) आत्मा से (देवान्) विद्या की कामना करते हुओं को (उपावसृजन्) अपने समीप नाना प्रकार की विद्या से परिपूरित करते हुए (देवेषु) प्रकाशमान लोकों में (देवः) अत्यन्त दीपते हुए (मेधिरः) सङ्ग करानेवाले (अग्निः) जैसे अग्नि (हव्या) होम से देने योग्य पदार्थों को (सुषूदति) सुन्दरता से ग्रहण कर परमाणुरूप करता है वैसे विद्या का (यक्षि) सङ्ग करते हो। इससे सत्कार करने योग्य हो ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्यमण्डल पृथिवी आदि दिव्य पदार्थों में दिव्यरूप हुआ जल को वर्षाता है, वैसे विद्वान् जन संसार में विद्यार्थियों में विद्या की वर्षा करावें ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये वनस्पते त्वं यतस्त्मना आत्मना देवानुपावसृजन्सन् देवेषु देवो मेधिरोऽग्निर्हव्या सुषूदतीव विद्यां यक्षि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवसृजन्) विविधया विद्ययाऽलंकुर्वन् (उप) (त्मना) आत्मना (देवान्) विद्यां कामयमानान् (यक्षि) संगच्छसे (वनस्पते) रश्मिपतिः सूर्य्यइव वर्त्तमान (अग्निः) पावकः (हव्या) दातुमर्हाणि (सुसूदति) सुष्ठु क्षरति वर्षति (देवः) देदीप्यमानः (देवेषु) द्योतमानेषु लोकेषु (मेधिरः) संगमयिता ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः पृथिव्यादिषु देवेषु दिव्येषु पदार्थेषु दिव्यस्वरूपस्सन् जलं वर्षयति तथा विद्वांसो जगति विद्यार्थिषु विद्यां वर्षयेयुः ॥ ११ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडळ, पृथ्वी इत्यादी दिव्य पदार्थांमध्ये दिव्यरूपी जलाचा वर्षाव करते, तसे संसारात विद्वानांनी विद्यार्थ्यांवर विद्येचा वर्षाव करावा. ॥ ११ ॥