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त्वम॑ग्ने शशमा॒नाय॑ सुन्व॒ते रत्नं॑ यविष्ठ दे॒वता॑तिमिन्वसि। तं त्वा॒ नु नव्यं॑ सहसो युवन्व॒यं भगं॒ न का॒रे म॑हिरत्न धीमहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne śaśamānāya sunvate ratnaṁ yaviṣṭha devatātim invasi | taṁ tvā nu navyaṁ sahaso yuvan vayam bhagaṁ na kāre mahiratna dhīmahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। श॒श॒मा॒नाय॑। सु॒न्व॒ते। रत्न॑म्। य॒वि॒ष्ठ॒। दे॒वता॑तिम्। इ॒न्व॒सि॒। त्वम्। त्वा॒। नु। नव्य॑म्। स॒ह॒सः॒। यु॒व॒न्। व॒यम्। भग॑म्। न। का॒रे। म॒हि॒ऽर॒त्न॒। धी॒म॒हि॒ ॥ १.१४१.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:141» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहसः) बलसम्बन्धी (युवन्) यौवनभाव को प्राप्त (यविष्ठ) अत्यन्त तरुण (महिरत्न) प्रशंसा करने योग्य गुणों से रमणीय (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वान् ! जो (त्वम्) आप (शशमानाय) अधर्म को उल्लङ्घ के धर्म को प्राप्त हुए (सुन्वते) और ऐश्वर्य को उत्पन्न करनेवाले उत्तम जन के लिये (रत्नम्) रमणीय ज्ञान वा उसके साधन को और (देवतातिम्) परमेश्वर को (इन्वसि) ध्यानयोग से व्याप्त होते हो (तम्) उन (नव्यम्) नवीन विद्वानों में प्रसिद्ध (त्वा) आपको (कारे) कर्त्तव्य व्यवहार में (भगम्) ऐश्वर्य के (न) समान (वयम्) हम लोग (नु) शीघ्र (धीमहि) धारण करें ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - जो अधर्म को छोड़ धर्म का अनुष्ठान कर परमात्मा को प्राप्त होते हैं, वे अति रमणीय आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सहसो युवन् यविष्ठ महिरत्नाऽग्ने यस्त्वं शशमानाय सुन्वते रत्नं देवतातिं चेन्वसि तं नव्यं त्वा कारे भगन्नेव वयन्नु धीमहि ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान विद्वन् (शशमानाय) अधर्ममाप्लुत्य धर्मं प्राप्नुवते (सुन्वते) ऐश्वर्योत्पादकाय (रत्नम्) रमणीयं ज्ञानं साधनं वा (यविष्ठ) अतिशयेन युवम् (देवतातिम्) देवतामेव परमात्मानम् (इन्वसि) ध्यानयोगेन व्याप्नोषि (तम्) (त्वा) त्वाम् (नु) शीघ्रम् (नव्यम्) नवेषु विद्वत्सु भवम् (सहसः) बलस्य (युवन्) यौवनं प्राप्नुवन् (वयम्) (भगम्) (न) इव (कारे) कर्त्तव्ये व्यवहारे (महिरत्न) पूज्यैर्गुणै रमणीय (धीमहि) धरेमहि ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - येऽधर्मं विहाय धर्ममनुष्ठाय परमात्मानं प्राप्नुवन्ति तेऽतिरम्यमानन्दमाप्नुवन्ति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे अधर्म सोडून धर्माचे अनुष्ठान करून परमेश्वराला प्राप्त करतात ते अतिशय रमणीय आनंद प्राप्त करतात. ॥ १० ॥