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स सं॒स्तिरो॑ वि॒ष्टिर॒: सं गृ॑भायति जा॒नन्ने॒व जा॑न॒तीर्नित्य॒ आ श॑ये। पुन॑र्वर्धन्ते॒ अपि॑ यन्ति दे॒व्य॑म॒न्यद्वर्प॑: पि॒त्रोः कृ॑ण्वते॒ सचा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa saṁstiro viṣṭiraḥ saṁ gṛbhāyati jānann eva jānatīr nitya ā śaye | punar vardhante api yanti devyam anyad varpaḥ pitroḥ kṛṇvate sacā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। स॒म्ऽस्तिरः॑। वि॒ऽष्टिरः॑। सम्। गृ॒भा॒य॒ति॒। जा॒नन्। ए॒व। जा॒न॒तीः। नित्यः॑। आ। श॒ये॒। पुनः॑। व॒र्ध॒न्ते॒। अपि॑। य॒न्ति॒। दे॒व्य॑म्। अ॒न्यत्। वर्पः॑। पि॒त्रोः। कृ॒ण्व॒ते॒। सचा॑ ॥ १.१४०.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:140» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:6» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (सः) वह (संस्तिरः) अच्छा ढाँपने (विष्टिरः) वा सुख फैलानेवाला विद्वान् (सं, गृभायति) सुन्दरता से पदार्थों का ग्रहण करता वैसे (जानन्) जानता हुआ (नित्यः) नित्य मैं (जानतीः) ज्ञानवती उत्तम स्त्रियों के (एव) ही (आ, शये) पास सोता हूँ। जो (पित्रोः) माता-पिता के (अन्यत्) और (देव्यम्) विद्वानों में प्रसिद्ध (वर्पः) रूप को (अपि, यन्ति) निश्चय से प्राप्त होते हैं वे (पुनः) बार-बार (वर्द्धन्ते) बढ़ते हैं और (कृण्वते) उत्तम-उत्तम कार्यों को भी करते हैं वैसे तुम भी (सचा) मिला हुआ काम किया करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जिन विद्वानों के साथ विदुषी स्त्रियों का विवाह होता है, वे विद्वान् जन नित्य बढ़ते हैं, जो उत्तम गुणों का ग्रहण करते, वे यहाँ पुरुषार्थी होकर जन्मान्तर में भी सुखयुक्त होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा स संस्तिरो विष्टिरो विद्वान् संगृभायति तथा जानन्नित्योऽहं जानतीरेवाशये। ये पित्रोरन्यद्देव्यं वर्पोऽपियन्ति ते पुनर्वर्धन्ते कृण्वत च तथा यूयमपि सचा कुरुत ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (संस्तिरः) सम्यगाच्छादकः (विस्तिरः) सुखविस्तारकः (सम्) (गृभायति) गृह्णाति। अत्र हस्य श्नः शायच्। (जानन्) (एव) (जानतीः) ज्ञानयुक्ताः (नित्यः) (आ) (शये) (पुनः) (वर्धन्ते) (अपि) (यन्ति) (देव्यम्) देवेषु विद्वत्सु भवम् (अन्यत्) (वर्पः) रूपम् (पित्रोः) जननीजनकयोः (कृण्वते) कुर्वन्ति (सचा) समवेतम् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यैर्विद्यावद्भिः सह विदुषीणां विवाहो जायते ते नित्यं वर्धन्ते। ये सद्गुणान् गृह्णन्ति तेऽत्र पुरुषार्थिनो भूत्वा जन्मान्तरेऽपि सुखिनो जायन्ते ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या विद्वानांबरोबर विदुषी स्त्रियांचा विवाह होतो ते विद्वान नित्य वाढतात. जे नित्य उत्तम गुण ग्रहण करतात ते येथे पुरुषार्थी बनून जन्मजन्मान्तरी सुखी होतात. ॥ ७ ॥