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इ॒दम॑ग्ने॒ सुधि॑तं॒ दुर्धि॑ता॒दधि॑ प्रि॒यादु॑ चि॒न्मन्म॑न॒: प्रेयो॑ अस्तु ते। यत्ते॑ शु॒क्रं त॒न्वो॒३॒॑ रोच॑ते॒ शुचि॒ तेना॒स्मभ्यं॑ वनसे॒ रत्न॒मा त्वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idam agne sudhitaṁ durdhitād adhi priyād u cin manmanaḥ preyo astu te | yat te śukraṁ tanvo rocate śuci tenāsmabhyaṁ vanase ratnam ā tvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। अ॒ग्ने॒। सुऽधि॑तम्। दुःऽधि॑तात्। अधि॑। प्रि॒यात्। ऊँ॒ इति॑। चि॒त्। मन्म॑नः। प्रेयः॑। अ॒स्तु॒। ते॒। यत्। ते॒। शु॒क्रम्। त॒न्वः॑। रोच॑ते। शुचि॑। तेन॑। अ॒स्मभ्य॑म्। व॒न॒से॒। रत्न॑म्। आ। त्वम् ॥ १.१४०.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:140» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् ! (दुर्धितात्) दुःख के साथ धारण किये हुए व्यवहार (उ) या तो (प्रियात्) प्रिय व्यवहार से (सुधितम्) सुन्दर धारण किया हुआ (इदम्) यह (मन्मनः) मेरा मन (ते) तुम्हारा (प्रेयः) अतीव पियारा (अस्तु) हो और (यत्) जो (ते) तुम्हारे (चित्) निश्चय के साथ (तन्वः) शरीर का (शुचि) पवित्र करनेवाला (शुक्रम्) शुद्ध पराक्रम (अधिरोचते) अधिकतर प्रकाशमान होता है (तेन) उससे (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (त्वम्) आप (रत्नम्) मनोहर धन का (आ, वनसे) अच्छे प्रकार सेवन करते हैं ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को दुःख से सोच न करना चाहिये और न सुख से हर्ष मानना चाहिये, जिससे एक दूसरे के उपकार के लिये चित्त अच्छे प्रकार लगाया जाय और जो ऐश्वर्य हो, वह सबके सुख के लिये बाँटा जाय ॥ ११ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अग्ने दुर्धितादु प्रियात्सुधितमिदं मन्मनस्ते प्रेयोऽस्तु यत्ते चित् तन्वः शुचि शुक्रमधिरोचते तेनास्मभ्यं त्वं रत्नमावनसे ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) (अग्ने) विद्वन् (सुधितम्) सुष्ठु धृतम् (दुर्धितात्) दुःखेन धृतात् (अधि) (प्रियात्) (उ) वितर्के (चित्) अपि (मन्मनः) मम मनः (प्रेयः) अतिशयेन प्रियम् (अस्तु) भवतु (ते) तुभ्यम् (यत्) (ते) तव (शुक्रम्) शुद्धम् (तन्वः) शरीरस्य (रोचते) (शुचि) पवित्रकारकम् (तेन) (अस्मभ्यम्) (वनसे) संभजसि) (रत्नम्) (आ) (त्वम्) ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्दुःखान्न शोचितव्यं सुखाच्च न हर्षितव्यं यतः परस्परस्योपकाराय चित्तं संलग्येत यदैश्वर्यं तत्सर्वेषां सुखाय विभज्येत ॥ ११ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी दुःखात शोक व सुखात हर्ष मानू नये. एक दुसऱ्यावर उपकार करण्यासाठी मन लावावे व ऐश्वर्य सर्वांच्या सुखासाठी वापरावे. ॥ ११ ॥