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आ त्वा॒ कण्वा॑ अहूषत गृ॒णन्ति॑ विप्र ते॒ धियः॑। दे॒वेभि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tvā kaṇvā ahūṣata gṛṇanti vipra te dhiyaḥ | devebhir agna ā gahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। त्वा॒। कण्वाः॑। अ॒हू॒ष॒त॒। गृ॒णन्ति॑। वि॒प्र॒। ते॒। धियः॑। दे॒वेभिः॑ अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:14» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से दो अर्थों का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जगदीश्वर ! जैसे (कण्वाः) मेधावी विद्वान् लोग (त्वा) आपका (गृणन्ति) पूजन तथा (आहूषत) प्रार्थना करते हैं, वैसे ही हम लोग भी आपका पूजन और प्रार्थना करें। हे (विप्र) मेधाविन् विद्वन् ! जैसे (ते) तेरी (धियः) बुद्धि जिस ईश्वर के (गृणन्ति) गुणों का कथन और प्रार्थना करती हैं, वैसे हम सब लोग परस्पर मिलकर उसी की उपासना करते रहें। हे मङ्गलमय परमात्मन् ! आप कृपा करके (देवेभिः) उत्तम गुणों के प्रकाश और भोगों के देने के लिये हम लोगों को (आगहि) अच्छी प्रकार प्राप्त हूजिये॥१॥२॥हे (विप्र) मेधावी विद्वान् मनुष्य ! जैसे (कण्वाः) अन्य विद्वान् लोग (अग्ने) अग्नि के (गृणन्ति) गुणप्रकाश और (अहूषत) शिल्पविद्या के लिये युक्त करते हैं, वैसे तुम भी करो। जैसे (अग्ने) यह अग्नि (देवेभिः) दिव्यगुणों के साथ (आगहि) अच्छी प्रकार अपने गुणों को विदित करता है और जिस अग्नि के (ते) तेरी (धियः) बुद्धि (गृणन्ति) गुणों का कथन तथा (अहूषत) अधिक से अधिक मानती हैं, उससे तुम बहुत से कार्य्यों को सिद्ध करो॥२॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को इस संसार में ईश्वर के रचे हुए पदार्थों को देखकर यह कहना चाहिये कि ये सब धन्यवाद और स्तुति ईश्वर ही में घटती हैं॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निशब्देनोभावर्थावुपदिश्येते।

अन्वय:

हे अग्ने ईश्वर ! यथा कण्वा मेधाविनस्त्वा त्वां गृणन्त्यहूषताह्वयन्ति तथैव वयमपि गृणीमः आह्वयामः। हे विप्र मेधाविन् ! तथा ते तव धियो यं गृणन्त्याह्वयन्ति तथा सर्वे वयं मिलित्वा तमेव नित्यमुपास्महे। हे मङ्गलमय परमात्मँस्त्वं कृपया देवेभिः सहागहि समन्तात् प्राप्तो भवेत्येकः॥१॥२॥हे विप्र विद्वन् ! यथा कण्वा अन्ये विद्वांसोऽग्निं गृणन्त्यहूषताह्वयन्ति तथैव त्वमपि गृणीह्याह्वय। यथा देवेभिः सहाग्न आगह्ययं भौतिकोऽग्निः समन्ताद्विदितगुणो भूत्वा दिव्यगुणसुखप्रापको भवति, यमग्निं ते तव धियो बुद्धयो गृणन्ति स्पर्धन्ते तेन त्वं बहूनि कार्य्याणि साधयेति द्वितीयः॥२॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) आभिमुख्ये (त्वा) त्वां जगदीश्वरं तं भौतिकं वा (कण्वाः) मेधाविनो विद्वांसः। कण्व इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.५) (अहूषत) आह्वयन्ति शिल्पार्थं स्पर्धयन्ति वा। अत्र लडर्थे लुङ्, बहुलं छन्दसि इति सम्प्रसारणञ्च। (गृणन्ति) अर्चन्ति शब्दयन्ति वा। गृणातीत्यर्चतिकर्मसु पठितम्। (निघं०३.१४) गॄ शब्दे इति पक्षे शब्दार्थः। (विप्र) विविधज्ञानेन पदार्थान् प्राति पूरयति स विद्वान् तत्संबुद्धौ। (ते) तव तस्य वा (अग्ने) विज्ञानस्वरूप प्राप्तिहेतुर्भौतिकोऽग्निर्वा। (आ) क्रियायोगे (गहि) प्राप्नुहि प्रापयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। वा छन्दसि। (अष्टा०३.४.८८) इति हेरपित्त्वात्, अनुदात्तोपदेश० (अष्टा०६.४.३७) अनेनानुनासिकलोपश्च॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरस्यां सृष्टावीश्वररचितान् पदार्थान् दृष्ट्वेदं वाच्यमिमे सर्वे धन्यवादाः स्तुतयश्चयेश्वरायैव सङ्गच्छन्त इति॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी या संसारात ईश्वराने निर्माण केलेल्या पदार्थांना पाहून हे म्हटले पाहिजे की संपूर्ण धन्यवाद व प्रशंसा ईश्वराचीच केली जावी. ॥ २ ॥