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मो षु वो॑ अ॒स्मद॒भि तानि॒ पौंस्या॒ सना॑ भूवन्द्यु॒म्नानि॒ मोत जा॑रिषुर॒स्मत्पु॒रोत जा॑रिषुः। यद्व॑श्चि॒त्रं यु॒गेयु॑गे॒ नव्यं॒ घोषा॒दम॑र्त्यम्। अ॒स्मासु॒ तन्म॑रुतो॒ यच्च॑ दु॒ष्टरं॑ दिधृ॒ता यच्च॑ दु॒ष्टर॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mo ṣu vo asmad abhi tāni pauṁsyā sanā bhūvan dyumnāni mota jāriṣur asmat purota jāriṣuḥ | yad vaś citraṁ yuge-yuge navyaṁ ghoṣād amartyam | asmāsu tan maruto yac ca duṣṭaraṁ didhṛtā yac ca duṣṭaram ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मो इति॑। सु। वः॒। अ॒स्मत्। अ॒भि। तानि॑। पौंस्या॑। सना॑। भू॒व॒न्। द्यु॒म्नानि॑। मा। उ॒त। जा॒रि॒षुः॒। अ॒स्मत्। पु॒रा। उ॒त। जा॒रि॒षुः॒। यत्। वः॒। चि॒त्रम्। यु॒गेऽयु॑गे। नव्य॑म्। घोषा॑त्। अम॑र्त्यम्। अ॒स्मासु॑। तत्। म॒रु॒तः॒। यत्। च॒। दुः॒ऽतर॑म्। दि॒धृ॒त। यत्। च॒। दुः॒ऽतर॑म् ॥ १.१३९.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:139» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले विद्वानो ! (वः) तुम्हारे (तानि) वे (सना) सनातन (पौंस्या) पुरुषों में उत्तम बल (अस्मत्) हम लोगों से (मो, अभि, भूवन्) मत तिरस्कृत हों, जो (पुरा, उत) पहिले भी (जारिषुः) नष्ट हुए (उत) वे भी (द्युम्नानि) यश वा धन (अस्मत्) हम लोगों से (मा, जारिषुः) फिर नष्ट न होवें (यत्) जो (वः) तुम्हारा (युगेयुगे) युग-युग में (चित्रम्) अद्भुत (अमर्त्यम्) अविनाशी (नव्यम्) नवीनों में हुआ यश (यत्, च) और जो (दुस्तरम्) शत्रुओं को दुःख से पार होने योग्य बल (यत् च) और जो (दुस्तरम्) शत्रुओं को दुःख से पार होने योग्य काम (घोषात्) वाणी से तुम (दिधृत) धारण करो (तत्) वह समस्त (अस्मासु) हम लोगों में (सु) अच्छापन जैसे हो वैसे धारण करो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को इस प्रकार आशंसा, इच्छा और प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे बल, यश, धन, आयु और राज्य नित्य बढ़े ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मरुतो वस्तानि सना पौंस्याऽस्मन्मो अभिभूवन्। यानि पुरोत जारिषुस्तान्युत द्युम्नान्यस्मन्मा जारिषुः। यद्वो युगेयुगे चित्रममर्त्यं नव्यं यशो यच्च दुस्तरं यच्च दुस्तरं घोषाद् यूयं दिधृत तदस्मासु सुदिधृत ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मो) निषेधे (सु) शोभने (वः) (अस्मत्) (अभि) (तानि) (पौंस्या) पुंसु साधूनि बलानि। पौंस्यानीति बलना०। निघं० २। ९। (सना) सनातनानि (भूवन्) अभूवन् भवन्तु। अत्राडभावः। (द्युम्नानि) यशांसि धनानि वा (मा) (उत) अपि (जारिषुः) जरन्तु। अत्राप्यडभावः। (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (पुरा) (उत) अपि (जारिषुः) जीर्णानि भवन्तु (यत्) (वः) (चित्रम्) अद्भुतम् (युगेयुगे) वर्षे वर्षे (नव्यम्) नवेषु नवीनेषु भवम् (घोषात्) वाचः। घोष इति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (अमर्त्यम्) नाशरहितम् (अस्मासु) (तत्) (मरुतः) ऋत्विजः। मरुत इति ऋत्विङ्ना० निघं० ३। १८। (यत्) (च) (दुस्तरम्) दुःखेन तरितुं योग्यं बलम् (दिधृत) धरत। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (यत्) (च) (दुस्तरम्) ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरेवमाशंसितव्यं प्रयतितव्यं च यतो बलं यशो धनमायू राज्यं च नित्यं वर्द्धेत ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी या प्रकारच्या इच्छा बाळगाव्या व प्रयत्न करावेत की ज्यामुळे बल, यश, धन, आयुष्य व राज्य सदैव वाढावे. ॥ ८ ॥