वांछित मन्त्र चुनें

यद्ध॒ त्यन्मि॑त्रावरुणावृ॒तादध्या॑द॒दाथे॒ अनृ॑तं॒ स्वेन॑ म॒न्युना॒ दक्ष॑स्य॒ स्वेन॑ म॒न्युना॑। यु॒वोरि॒त्थाधि॒ सद्म॒स्वप॑श्याम हिर॒ण्यय॑म्। धी॒भिश्च॒न मन॑सा॒ स्वेभि॑र॒क्षभि॒: सोम॑स्य॒ स्वेभि॑र॒क्षभि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad dha tyan mitrāvaruṇāv ṛtād adhy ādadāthe anṛtaṁ svena manyunā dakṣasya svena manyunā | yuvor itthādhi sadmasv apaśyāma hiraṇyayam | dhībhiś cana manasā svebhir akṣabhiḥ somasya svebhir akṣabhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। ह॒। त्यत्। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒। ऋ॒तात्। अधि॑। आ॒द॒दाथे॒ इत्या॑ऽद॒दाथे॑। अनृ॑तम्। स्वेन॑। म॒न्युना॑। दक्ष॑स्य। स्वेन॑। म॒न्युना॑। यु॒वोः। इ॒त्था। अधि॑। सद्म॑ऽसु। अप॑श्याम। हि॒र॒ण्यय॑म्। धी॒भिः। च॒न। मन॑सा। स्वेभिः॑। अ॒क्षऽभिः॑। सोम॑स्य। स्वेभिः॑। अ॒क्षऽभिः॑ ॥ १.१३९.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:139» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणौ) प्राण और उदान के समान वर्त्तमान सभासेनाधीश पुरुषो ! (सद्मसु) घरों में (मनसा) उत्तम बुद्धि के साथ (धीभिः) कामों से (सोमस्य) ऐश्वर्य्य के (स्वेभिः) निज उत्तमोत्तम ज्ञान वा (अक्षभिः) प्राणों के समान (स्वेभिः) अपनी (अक्षभिः) इन्द्रियों के साथ वर्त्ताव रखते हुए हम लोग (युवोः) तुम्हारे घरों में (हिरण्ययम्) सुवर्णमय धन को (अधि, अपश्याम) अधिकता से देखें (चन) और भी (यत्) जो सत्य है, (त्यत् ह) उसीको (ऋतात्) सत्य जो धर्म के अनुकूल व्यवहार उससे ग्रहण करें, (स्वेन) अपने (मन्युना) क्रोध व्यवहार से (दक्षस्य) बल के साथ (अनृतम्) मिथ्या व्यवहार को छोड़ें, तुम भी (स्वेन) अपने (मन्युना) क्रोधरूपी व्यवहार से मिथ्या व्यवहार को छोड़ो। जैसे आप सत्य व्यवहार से सत्य (अभि, आ ददाथे) अधिकता से ग्रहण करो (इत्था) इस प्रकार हम लोग भी ग्रहण करें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सत्य ग्रहण और असत्य का त्याग कर अपने पुरषार्थ से पूरा बल और ऐश्वर्य्य सिद्ध कर अपना अन्तःकरण और अपने इन्द्रियों को सत्य काम में प्रवृत्त करना चाहिये ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मित्रावरुणौ सद्मसु मनसा धीभिः सोमस्य स्वेभिरक्षभिरिव स्वेभिरक्षभिः सह वर्त्तमाना वयं युवोः सद्मसु हिरण्ययमध्यपश्याम चनापि यत्सत्यं त्यद्ध ऋताद्गृह्णीयाम्। स्वेन मन्युना दक्षस्य ग्रहणेनाऽनृतं त्यजेम युवामपि स्वेन मन्युना त्यजेतं यथा युवामृतात्सत्यमध्याददाथे इत्था वयमप्यध्याददेमहि ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) (ह) (त्यत्) अदः (मित्रावरुणौ) प्राणोदानवद्वर्त्तमानौ (ऋतात्) सत्याद्धर्म्याद्व्यवहारात् (अधि) (आददाथे) (अनृतम्) मिथ्याव्यवहारम् (स्वेन) स्वकीयेन (मन्युना) (दक्षस्य) बलस्य (स्वेन) स्वात्मभावेन (मन्युना) क्रोधेन (युवोः) युवयोः (इत्था) अनेन प्रकारेण (अधि) (सद्मसु) गृहेषु (अपश्याम) संप्रेक्षेमहि (हिरण्ययम्) हिरण्यप्रभूतं धनम् (धीभिः) कर्मभिः (चन) अपि (मनसा) प्रज्ञया (स्वेभिः) स्वकीयैः (अक्षभिः) इन्द्रियैः (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (स्वेभिः) स्वकीयैः प्रज्ञानैः (अक्षभिः) प्राणैः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सत्यग्रहणमसत्यत्यागं च कृत्वा स्वपुरुषार्थेन पूर्णे बलैश्वर्ये विधाय स्वमन्तःकरणं स्वानीन्द्रियाणि च सत्ये कर्मणि प्रवर्त्तनीयानि ॥ २ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सत्याचे ग्रहण व असत्याचा त्याग करून आपल्या पुरुषार्थाने पूर्ण बल व ऐश्वर्य सिद्ध करून आपले अंतःकरण व आपली इंद्रिये यांना सत्य कर्मात प्रवृत्त केले पाहिजे ॥ २ ॥