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ये दे॑वासो दि॒व्येका॑दश॒ स्थ पृ॑थि॒व्यामध्येका॑दश॒ स्थ। अ॒प्सु॒क्षितो॑ महि॒नैका॑दश॒ स्थ ते दे॑वासो य॒ज्ञमि॒मं जु॑षध्वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye devāso divy ekādaśa stha pṛthivyām adhy ekādaśa stha | apsukṣito mahinaikādaśa stha te devāso yajñam imaṁ juṣadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ये। दे॒वा॒सः॒। दि॒वि। एका॑दश। स्थ। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। एका॑दश। स्थ। अ॒प्सु॒ऽक्षितः॑। म॒हि॒ना। एका॑दश। स्थ। ते। दे॒वा॒सः॒। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। जु॒ष॒ध्व॒म् ॥ १.१३९.११

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:139» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवासः) विद्वानो ! तुम (ये) जो (दिवि) सूर्यादि लोक में (एकादश) दश प्राण और ग्यारहवाँ जीव (स्थ) हैं वा जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (एकादश) उक्त एकादश गण के (अधि, स्थ) अधिष्ठित हैं वा जो (महिना) महत्त्व के साथ (अप्सुक्षितः) अन्तरिक्ष वा जलों में निवास करनेहारे (एकादश) दशेन्द्रिय और एक मन (स्थ) हैं (ते) वे जैसे हैं वैसे उनको जानके हे (देवासः) विद्वानो ! तुम (इमम्) इस (यज्ञम्) सङ्ग करने योग्य व्यवहाररूप यज्ञ को (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करो ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर के इस सृष्टि में जो पदार्थ सूर्यादि लोकों में हैं अर्थात् जो अन्यत्र वर्त्तमान हैं वे ही यहाँ हैं, जितने यहाँ हैं उतने ही वहाँ और लोकों में हैं, उनको यथावत् जानके मनुष्यों को योगक्षेम निरन्तर करना चाहिये ॥ ११ ॥।इस सूक्त में विद्वानों के शील का वर्णन होने से इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ ११ ॥यह एकसौ उनतालीसवाँ सूक्त, चौथा वर्ग और बीसवाँ अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे देवासो विद्वांसो यूयं ये दिवि एकादश स्थ ये पृथिव्यामेकादशाधिष्ठ ये महिनाऽप्सुक्षित एकादश स्थ ते यथाविधाः सन्ति तथा तान् विज्ञाय हे देवासो यूयमिमं यज्ञं जुषध्वम् ॥ ११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) (देवासः) विद्वांसः (दिवि) सूर्यादिलोके (एकादश) दश प्राणा जीवात्मा च (स्थ) सन्ति (पृथिव्याम्) भूमौ (अधि) उपरि (एकादश) (स्थ) (अप्सुक्षितः) येऽप्सु क्षियन्ति निवसन्ति ते (महिना) महिम्ना (एकादश) दशेन्द्रियाणि मनश्चेति (स्थ) (ते) (देवासः) विद्वांसः (यज्ञम्) संगन्तव्यम् (इमम्) (जुषध्वम्) सेवध्वम् ॥ ११ ॥
भावार्थभाषाः - इहेश्वरसृष्टौ ये पदार्थाः सूर्यादिलोके सन्त्यर्थाद्येऽन्यत्र वर्त्तन्त त एवाऽत्र यावन्तोऽत्र सन्ति तावन्त एव तत्र सन्ति तान् यथावद्विदित्वा मनुष्यैर्योगक्षेमः सततं कर्त्तव्य इति ॥ ११ ॥अत्र विदुषां शीलवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्भवतीति बोध्यम् ॥इत्येकोनचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्थो वर्गो विंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराच्या सृष्टीत जे पदार्थ सूर्य इत्यादी लोकात आहेत अर्थात् जे अन्यत्र आहेत तेच येथे आहेत. जितके येथे आहेत तितके इतर लोकात (गोलात) ही आहेत. त्यांना यथायोग्य जाणून घेऊन माणसांनी निरंतर योगक्षेम चालविला पाहिजे. ॥ ११ ॥