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होता॑ यक्षद्व॒निनो॑ वन्त॒ वार्यं॒ बृह॒स्पति॑र्यजति वे॒न उ॒क्षभि॑: पुरु॒वारे॑भिरु॒क्षभि॑:। ज॒गृ॒भ्मा दू॒र आ॑दिशं॒ श्लोक॒मद्रे॒रध॒ त्मना॑। अधा॑रयदर॒रिन्दा॑नि सु॒क्रतु॑: पु॒रू सद्मा॑नि सु॒क्रतु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hotā yakṣad vanino vanta vāryam bṛhaspatir yajati vena ukṣabhiḥ puruvārebhir ukṣabhiḥ | jagṛbhmā dūraādiśaṁ ślokam adrer adha tmanā | adhārayad ararindāni sukratuḥ purū sadmāni sukratuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। व॒निनः॑। व॒न्त॒। वार्य॑म्। बृह॒स्पतिः॑। य॒ज॒ति॒। वे॒नः। उ॒क्षऽभिः॑। पु॒रु॒ऽवारे॑भिः। उ॒क्षऽभिः॑। ज॒गृ॒भ्म। दू॒रेऽआ॑दिशम्। श्लोक॑म्। अद्रेः॑। अध॑। त्मना॑। अधा॑रयत्। अ॒र॒रिन्दा॑नि। सु॒ऽक्रतुः॑। पु॒रु। सद्मा॑नि। सु॒ऽक्रतुः॑ ॥ १.१३९.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:139» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (होता) सद्गुणों का ग्रहण करनेवाला जन (पुरुवारेभिः) जिनके स्वीकार करने योग्य गुण हैं उन (उक्षभिः) महात्माजनों के साथ जिस (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य जन का (यक्षत्) सङ्ग कर वा जिनके स्वीकार करने योग्य गुण उन (उक्षभिः) महात्माजनों के साथ वर्त्तमान (वेनः) कामना करने और (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी की पालना करनेवाला विद्वान् जिस स्वीकार करने योग्य का (यजति) सङ्ग करता है (सुक्रतुः) सुन्दर बुद्धिवाला जन (त्मना) आपसे जिन (पुरु) बहुत (सद्मानि) प्राप्त होने योग्य पदार्थों को (अधारयत्) धारण करावे वा (सुक्रतुः) उत्तम काम करनेवाला जन (अद्रेः) मेघ से (अररिन्दानि) जलों को जैसे वैसे (दूर आदिशम्) दूर में जो कहा जाय उस विषय और (श्लोकम्) वाणी को धारण करावे उस सबको (वनिनः) प्रशंसनीय विद्या किरणें जिनके विद्यामान हैं वे सज्जन (वन्त) अच्छे प्रकार सेवें, (अध) इसके अनन्तर इस उक्त समस्त विषय को हम लोग भी (जगृभ्म) ग्रहण करें ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मेघ से छुटे हुए जल समस्त प्राणी-अप्राणियों अर्थात् ज़ड़-चेतनों को जिलाते उनकी पालना करते हैं, वैसे वेदादि विद्याओं के पढ़ाने-पढ़नेवालों से प्राप्त हुई विद्या सब मनुष्यों को वृद्धि देती हैं और जैसे महात्मा शास्त्रवेत्ता विद्वानों के साथ सम्बन्ध से सज्जन लोग जानने योग्य विषय को जानते हैं, वैसे विद्या के उत्तम सम्बन्ध से मनुष्य चाहे हुए विषय को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

होता पुरुवारेभिरुक्षभिर्यद्वार्य्यं यक्षत् पुरुवारेभिरुक्षभिस्सह वर्त्तमानो वेनो बृहस्पतिर्यद्वार्य्यं यजति सुक्रतुस्त्मना यानि पुरु सद्मान्यधारयत्सुक्रतुरद्वेरररिन्दानीव दूरआदिशं श्लोकमधारयत् तत्सर्वं वनिनो वन्ताऽधैतत्सर्वं वयमपि जगृभ्म ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (होता) गृहीता (यक्षत्) यजेत् (वनिनः) वनानि प्रशस्तविद्यारश्मयो विद्यन्ते येषां ते (वन्त) संभजत। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (वार्यम्) वर्त्तुमर्हम् (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालकः (यजति) यजेत्। लेट्प्रयोगोऽयम्। (वेनः) कामयमानः (उक्षभिः) महद्भिः। उक्षेति महन्ना०। निघं० ३। ३। (पुरुवारेभिः) पुरवो बहवो वारा वरितव्या गुणा येषां तैः (उक्षभिः) महद्भिरिव (जगृभ्म) गृह्णीयाम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (दूर आदिशम्) दूरे य आदिश्यते तम् (श्लोकम्) वाचम् (अद्रेः) मेघात् (अध) अथ (त्मना) आत्मना (अधारयत्) धारयेत् (अररिन्दानि) उदकानि। अररिन्दानीत्युदकना०। निघं० १। १२। (सुक्रतुः) शोभनप्रज्ञः (पुरु) बहूनि (सद्मानि) प्राप्तव्यानि (सुक्रतुः) शोभनकर्मा ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मेघाच्च्युतानि जलानि सर्वान् प्राण्यप्राणिनो जीवयन्ति तथा वेदादिविद्यानामध्यापकाऽध्येतृभ्यः प्राप्ता विद्याः सर्वान्मनुष्यान् वर्धयन्ति यथा महद्भिराप्तैः सह संप्रयोगेण सज्जना वेदितव्यं विदन्ति तथा विद्यासंप्रयोगेण मनुष्या कमनीयं प्राप्नुवन्ति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे मेघातून खाली आलेले जल संपूर्ण प्राणी अप्राणी अर्थात् जड चेतनाला जीवन देते. तसे वेद इत्यादी विद्येचे अध्ययन अध्यापन करणाऱ्यांकडून प्राप्त झालेली विद्या सर्व माणसांना वृद्धिंगत करते. जसे महान विद्वानांच्या संगतीने सज्जन लोक जाणण्यायोग्य विषय जाणतात तसे विद्येच्या संगतीने माणसे इच्छित विषय प्राप्त करू शकतात. ॥ १० ॥