वांछित मन्त्र चुनें

यस्य॑ ते पूषन्त्स॒ख्ये वि॑प॒न्यव॒: क्रत्वा॑ चि॒त्सन्तोऽव॑सा बुभुज्रि॒र इति॒ क्रत्वा॑ बुभुज्रि॒रे। तामनु॑ त्वा॒ नवी॑यसीं नि॒युतं॑ रा॒य ई॑महे। अहे॑ळमान उरुशंस॒ सरी॑ भव॒ वाजे॑वाजे॒ सरी॑ भव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasya te pūṣan sakhye vipanyavaḥ kratvā cit santo vasā bubhujrira iti kratvā bubhujrire | tām anu tvā navīyasīṁ niyutaṁ rāya īmahe | aheḻamāna uruśaṁsa sarī bhava vāje-vāje sarī bhava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्य॑। ते॒। पू॒ष॒न्। स॒ख्ये। वि॒प॒न्यवः॑। क्रत्वा॑। चि॒त्। सन्तः॑। अव॑सा। बु॒भु॒ज्रि॒रे। इति॑। क्रत्वा॑। बु॒भु॒ज्रि॒रे। ताम्। अनु॑। त्वा॒। नवी॑यसीम्। नि॒ऽयुत॑म्। रा॒यः। ई॒म॒हे॒। अहे॑ळमानः। उ॒रु॒ऽशं॒स॒। सरी॑। भ॒व॒। वाजे॑ऽवाजे। सरी॑। भ॒व॒ ॥ १.१३८.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:138» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले विद्वन् ! (यस्य) जिस (ते) आपकी (सख्ये) मित्रता में (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से (अवसा) रक्षा आदि के साथ (विपन्यवः) विशेषता से अपनी प्रशंसा चाहनेवाले जन (नियुतम्) असंख्यात (रायः) राज्यलक्ष्मियों को (बुभुज्रिरे) भोगते हैं (इति) इस प्रकार (चित्) ही (सन्तः) होते हुए (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से जिस असंख्यात राज्यश्री को (बुभुज्रिरे) भोगते हैं (ताम्) उस (नवीयसीम्) अतीव नवीन उक्त श्री को और (अनु) अनुकूलता से (त्वा) आपको हम लोग (ईमहे) माँगते हैं। हे (उरुशंस) बहुत प्रशंसायुक्त विद्वान् ! हम लोगों से (अहेडमानः) अनादर को न प्राप्त होते हुए आप (वाजेवाजे) प्रत्येक संग्राम में (सरी) प्रशंसित ज्ञाता जन जिसके विद्यमान ऐसे (भव) हूजिये और धर्मयुक्त व्यवहार में भी (सरी) उक्त गुणी (भव) हूजिये ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो बुद्धिमानों के सङ्ग और मित्रपन से नवीन-नवीन विद्या को प्राप्त होते हैं, वे प्राज्ञ उत्तम ज्ञानवान् होकर विजयी होते हैं ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे पूषन् विद्वन् यस्य ये तव सख्ये क्रत्वाऽवसा सह विपन्यवो नियुतं रायो बुभुज्रिरे इति चित्सन्तः क्रत्वा यां नियुतं रायो बुभिज्रिरे तां नवीयसीं नियुतं रायोऽनु त्वा वयमीमहे। हे उरुशंस अस्माभिरहेडमानस्त्वं वाजेवाजे सरी भव धर्म्ये व्यवहारे च सरी भव ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) (ते) तव (पूषन्) पुष्टिकारक (सख्ये) (विपन्यवः) विशेषेणात्मनः पनं स्तवनमिच्छवः। विपन्यव इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (क्रत्वा) प्रज्ञया (चित्) (सन्तः) (अवसा) रक्षणाद्येन (बुभुज्रिरे) (इति) अनेन प्रकारेण (क्रत्वा) (बुभुज्रिरे) भुञ्जते (ताम्) (अनु) (त्वा) त्वाम् (नवीयसीम्) अतिशयेन नूतनाम् (नियुतम्) असंख्यातम् (रायः) राज्यश्रियः (ईमहे) याचामहे (अहेळमानः) अनादृतः सन् (उरुशंस) उरु बहु शंसः प्रशंसा यस्य तत्संबुद्धौ (सरी) सरति जानाति यः स प्रशस्तो विद्यते यस्य सः (भव) (वाजेवाजे) संग्रामे संग्रामे (सरी) (भव) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ये धीमतां संगमित्रत्वाभ्यां नूतनां नूतनां विद्यां प्राप्नुवन्ति ते प्राज्ञा भूत्वा विजयिनो भवन्ति ॥ ३ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे बुद्धिमानांची संगती व मैत्री करून नवनवीन विद्या प्राप्त करतात ते प्राज्ञ बनून विजयी होतात. ॥ ३ ॥