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यो मि॒त्राय॒ वरु॑णा॒यावि॑ध॒ज्जनो॑ऽन॒र्वाणं॒ तं परि॑ पातो॒ अंह॑सो दा॒श्वांसं॒ मर्त॒मंह॑सः। तम॑र्य॒माभि र॑क्षत्यृजू॒यन्त॒मनु॑ व्र॒तम्। उ॒क्थैर्य ए॑नोः परि॒भूष॑ति व्र॒तं स्तोमै॑रा॒भूष॑ति व्र॒तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo mitrāya varuṇāyāvidhaj jano narvāṇaṁ tam pari pāto aṁhaso dāśvāṁsam martam aṁhasaḥ | tam aryamābhi rakṣaty ṛjūyantam anu vratam | ukthair ya enoḥ paribhūṣati vrataṁ stomair ābhūṣati vratam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। मि॒त्राय॑। वरु॑णाय। अवि॑धत्। जनः॑। अ॒न॒र्वाण॑म्। तम्। परि॑। पा॒तः॒। अंह॑सः। दा॒श्वांस॑म्। मर्त॑म्। अंह॑सः। तम्। अ॒र्य॒मा। अ॒भि। र॒क्ष॒ति॒। ऋ॒जु॒ऽयन्त॑म्। अनु॑। व्र॒तम्। उ॒क्थैः। यः। ए॒नोः॒। प॒रि॒ऽभूष॑ति। व्र॒तम्। स्तोमैः॑। आ॒ऽभूष॑ति। व्र॒तम् ॥ १.१३६.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:136» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभासेनाधीशो ! (यः) जो (जनः) यश से प्रसिद्ध हुआ (मित्राय) सर्वोपकार करने (वरुणाय) और सबसे उत्तम स्वभाववाले मनुष्य के लिये तुम दोनों से (अविधत्) सेवा करे (तम्) उस (अनर्वाणम्) वैर आदि दोषों से रहित (मर्त्तम्) मनुष्य को (अंहसः) दुष्ट आचरण से तुम दोनों (परिपातः) सब ओर से बचाओ तथा (तम्) उस (दाश्वांसम्) विद्या देनेवाले मनुष्य को (अंहसः) पाप से बचाओ (यः) जो (अर्यमा) न्याय करनेवाला सज्जन (व्रतम्) सत्य आचरण करने और (ऋजूयन्तम्) अपने को कोमलपन चाहते हुए मनुष्य की (अभिरक्षति) सब ओर से रक्षा करता उसकी तुम दोनों (अनु) पीछे रक्षा करो जो (एनोः) इन दोनों के (उक्थैः) कहने योग्य उपदेशों से (व्रतम्) सुन्दर शील को (परिभूषति) सब ओर से सुशोभित करता वा (स्तौमैः) प्रशंसा करने योग्य व्यवहारों से (व्रतम्) सुन्दर शील को (आभूषति) अच्छे प्रकार शोभित करता, उसको सब विद्वान् निरन्तर पालें ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन जो लोग धर्म और अधर्म को जानना चाहें तथा धर्म का ग्रहण और अधर्म का त्याग करना चाहें, उनको पढ़ा और उपदेश कर विद्या और धर्म आदि शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से सब ओर से सुशोभित करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः कस्मै किं कुर्युरित्याह ।

अन्वय:

हे सभासेनेशौ यो जनो मित्राय वरुणाय युवाभ्यामविधत् तमनर्वाणं मर्त्तमंहसो युवां परिपातस्तं दाश्वांसं मर्त्तमंहसः परि पातः योऽर्यमा व्रतमृजूयन्तमभिरक्षति तं युवामनुरक्षथो य एनोरुक्थैर्व्रतं परिभूषति स्तोमैर्व्रतमाभूषति तं सर्वे विद्वांसः सततमारक्षन्तु ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (मित्राय) सर्वोपकारकाय (वरुणाय) सर्वोत्तमस्वभावाय (अविधत्) परिचरेत् (जनः) यशसा प्रादुर्भूतः (अनर्वाणम्) द्वेषादिदोषरहितम् (तम्) (परि) सर्वतः (पातः) रक्षतः (अंहसः) दुष्टाचारात् (दाश्वांसम्) विद्यादातारम् (मर्त्तम्) मनुष्यम् (अंहसः) पापात् (तम्) (अर्यमा) न्यायकारी (अभि) (रक्षति) (ऋजूयन्तम्) आत्मनः ऋजुभावमिच्छन्तम् (अनु) (व्रतम्) सत्याचारशीलम् (उक्थैः) वक्तुमर्हैरुपदेशैः (यः) (एनोः) एनयोः (परिभूषति) सर्वतोऽलङ्करोति (व्रतम्) सुशीलम् (स्तोमैः) स्तोतुमर्हैः (आभूषति) समन्तादाप्नोति (व्रतम्) सुशीलताम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वांसो ये धर्माऽधर्मौ विविदिषेयुर्धर्मस्य ग्रहणमधर्मस्य त्यागं च चिकीर्षेयुस्तानध्याप्योपदिश्य विद्याधर्मादिशुभगुणकर्मस्वभावैः सर्वत आभूषयेयुः ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक धर्म व अधर्म जाणू इच्छितात आणि धर्माचे ग्रहण व अधर्माचा त्याग करू इच्छितात त्यांना विद्वान लोकांनी अध्यापन व उपदेश करून विद्या व धर्म इत्यादी शुभ गुण, कर्म, स्वभावाने सुशोभित करावे ॥ ५ ॥