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अ॒यं मि॒त्राय॒ वरु॑णाय॒ शंत॑म॒: सोमो॑ भूत्वव॒पाने॒ष्वाभ॑गो दे॒वो दे॒वेष्वाभ॑गः। तं दे॒वासो॑ जुषेरत॒ विश्वे॑ अ॒द्य स॒जोष॑सः। तथा॑ राजाना करथो॒ यदीम॑ह॒ ऋता॑वाना॒ यदीम॑हे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayam mitrāya varuṇāya śaṁtamaḥ somo bhūtv avapāneṣv ābhago devo deveṣv ābhagaḥ | taṁ devāso juṣerata viśve adya sajoṣasaḥ | tathā rājānā karatho yad īmaha ṛtāvānā yad īmahe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। मि॒त्राय॑। वरु॑णाय॑। शम्ऽत॑मः। सोमः॑। भू॒तु॒। अ॒व॒ऽपाने॑षु। आऽभ॑गः। दे॒वः। दे॒वेषु॑। आऽभ॑गः। तम्। दे॒वासः॑। जु॒षे॒र॒त॒। विश्वे॑। अ॒द्य। स॒ऽजोष॑सः। तथा॑। रा॒जा॒ना॒। क॒र॒थः॒। यत्। ईम॑हे। ऋत॑ऽवाना। यत्। ईम॑हे ॥ १.१३६.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:136» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस संसार में मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अयम्) यह (अवपानेषु) अत्यन्त रक्षा आदि व्यवहारों में (मित्राय) सबके मित्र और (वरुणाय) सबसे उत्तम के लिये (आभगः) समस्त ऐश्वर्य (शन्तमः) अतीव सुख (सोमः) और सुखयुक्त ऐश्वर्य्य करनेवाला न्याय (भूतु) हो वैसे जो (देवः) सुख अच्छे प्रकार देनेवाला (देवेषु) दिव्य विद्वानों और दिव्य गुणों में (आभगः) समस्त सौभाग्य हो (तम्) उसको (अद्य) आज (सजोषसः) समान धर्म का सेवन करनेवाले (विश्वे) समस्त (देवासः) विद्वान् जन (जुषेरत) सेवन करें वा उससे प्रीति करें और जैसे (यत्) जिस व्यवहार को (राजाना) प्रकाशमान सभा सेनापति (करथः) करें (तथा) वैसे उस व्यवहार को हम लोग (ईमहे) माँगते और जैसे (ऋतावाना) सत्य का सम्बन्ध करनेवाले (यत्) जिस काम को करें, वैसे उसको हम लोग भी (ईमहे) याचें माँगें ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। इस संसार में जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् धर्म के अनुकूल व्यवहार से ऐश्वर्य्य की उन्नति कर सबके उपकार करनेहारे काम में खर्च करते वा जैसे सत्य व्यवहार को जानने की इच्छा करनेवाले धार्मिक विद्वानों को याचते अर्थात् उनसे अपने प्रिय पदार्थ को माँगते, वैसे सब मनुष्य अपने ऐश्वर्य को अच्छे काम में खर्च करें और विद्वान् महाशयों से विद्याओं की याचना करें ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरत्र मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

अन्वय:

यथाऽयमवपानेषु मित्राय वरुणायाभगः शंतमः सोमो भूतु तथा यो देवो देवेष्वाभगो भवतु तमद्य सजोषसो विश्वे देवासो जुषेरत यथा यद्यं राजाना करथस्तथा तं वयमीमहे यथा ऋतावाना यद्यं करथस्तथा तं वयमीमहे ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (मित्राय) सर्वसुहृदे (वरुणाय) सर्वोत्कृष्टाय (शंतमः) अतिशयेन सुखकारी (सोमः) सुखैश्वर्यकारको न्यायः (भूतु) भवतु। अत्र शपो लुक्, भसुवोस्तिङीति गुणप्रतिषेधः। (अवपानेषु) अत्यन्तेषु रक्षणेषु (आभगः) समस्तैश्वर्यः (देवः) सुखप्रदाता (देवेषु) दिव्येषु विद्वत्सु गुणेषु वा (आभगः) समस्तसौभाग्यः (तम्) (देवासः) विद्वांसः (जुषेरत) सेवेरन्प्रीणन्तु वा। अत्र बहुलं छन्दसीति रुडागमः। (विश्वे) सर्वे (अद्य) (सजोषसः) समानं धर्मं सेवमानाः (तथा) (राजाना) प्रकाशमानौ सभासेनेशौ (करथः) कुर्य्याताम् (यत्) यम् (ईमहे) याचामहे (ऋतावाना) ऋतस्य सत्यस्य सम्बन्धिनौ। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (यत्) यम् (ईमहे) ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। इह संसारे यथाऽऽप्ता धर्म्येण व्यवहारेणैश्वर्यमुन्नीय सर्वेषामुपकारके कर्मणि व्ययन्ति यथा सत्यं जिज्ञासवो धार्मिकान् विदुषो याचते तथा सर्वे मनुष्याः स्वमैश्वर्यं सत्कर्मणि व्ययेयुः। विद्वद्भ्यो विद्याश्च याचेरन् ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. या जगात जसे शास्त्रवेत्ते विद्वान धर्मानुकूल व्यवहाराने ऐश्वर्याची वाढ करतात व सर्वांवर उपकार करणाऱ्या कामात खर्च करतात जसे सत्य व्यवहाराची जिज्ञासा असणाऱ्या धार्मिक विद्वानांची याचना करतात. अर्थात आपल्याला प्रिय असलेले पदार्थ मागतात. तसे सर्व माणसांनी आपले ऐश्वर्य चांगल्या कामात खर्च करावे व विद्वानांकडून विद्यांची याचना करावी. ॥ ४ ॥