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अद॑र्शि गा॒तुरु॒रवे॒ वरी॑यसी॒ पन्था॑ ऋ॒तस्य॒ सम॑यंस्त र॒श्मिभि॒श्चक्षु॒र्भग॑स्य र॒श्मिभि॑:। द्यु॒क्षं मि॒त्रस्य॒ साद॑नमर्य॒म्णो वरु॑णस्य च। अथा॑ दधाते बृ॒हदु॒क्थ्यं१॒॑ वय॑ उप॒स्तुत्यं॑ बृ॒हद्वय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adarśi gātur urave varīyasī panthā ṛtasya sam ayaṁsta raśmibhiś cakṣur bhagasya raśmibhiḥ | dyukṣam mitrasya sādanam aryamṇo varuṇasya ca | athā dadhāte bṛhad ukthyaṁ vaya upastutyam bṛhad vayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अद॑र्शि। गा॒तुः। उ॒रवे॑। वरी॑यसी। पन्थाः॑। ऋ॒तस्य॑। सम्। अ॒यं॒स्त॒। र॒श्मिऽभिः॑। चक्षुः॑। भग॑स्य। र॒श्मिऽभिः॑। द्यु॒क्षम्। मि॒त्रस्य॑। साद॑नम्। अ॒र्य॒म्णः। वरु॑णस्य। च॒। अथ॑। द॒धा॒ते॒ इति॑। बृ॒हत्। उ॒क्थ्य॑म्। वयः॑। उ॒प॒ऽस्तुत्य॑म्। बृ॒हत्। वयः॑ ॥ १.१३६.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:136» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या पाकर कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जिससे (उरवे) बहुत बड़े के लिए (वरीयसी) अतीव श्रेष्ठ (गातुः) भूमि (अदर्शि) दीखती वा जहाँ सूर्य के (रश्मिभिः) किरणों के समान (रश्मिभिः) किरणों के साथ (चक्षुः) नेत्र (ऋतस्य) जल और (भगस्य) सूर्य के समान धन का (पन्था) मार्ग (समयंस्त) मिलता वा (मित्रस्य) मित्र (अर्यम्णः) न्यायाधीश और (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष का (द्युक्षम्) प्रकाशलोकस्थ (सादनम्) जिसमें स्थिर होते वह घर प्राप्त होता (अथ) अथवा जैसे (वयः) बहुत पखेरू (बृहत्) एक बड़े काम को वैसे जो (वयः) मनोहर जन (उपस्तुत्यम्) समीप में प्रशंसनीय (बृहत्) बड़े (उक्थ्यम्) और कहने योग्य काम को धारण करते (च) और जो दो मिलकर किसी काम को (दधाते) धारण करते, वे सब सुख पाते हैं ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के प्रकाश से भूमि पर मार्ग दीखते हैं, वैसे ही उत्तम विद्वानों के सङ्ग से सत्य विद्याओं का प्रकाश होता है वा जैसे पखेरू उत्तम आश्रय स्थान पाकर आनन्द पाते हैं, वैसे उत्तम विद्याओं को पाकर मनुष्य सब कभी सुख पाते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं प्राप्य कीदृशा भवन्तीत्याह ।

अन्वय:

येनोरवे वरीयसी गातुरदर्शि यत्र सूर्य्यस्य रश्मिभिरिव रश्मिभिस्सह चक्षुर्ऋतस्य भगस्य पन्थाः समयंस्त मित्रस्यार्य्यम्णो वरुणस्य द्युक्षं सादनं समयंस्ताथ वयो बृहदिव ये वय उपस्तुत्यं बृहदुक्थ्यं दधति यौ दधाते ते सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अदर्शि) (गातुः) भूमिः (उरवे) विस्तृताय (वरीयसी) अतिशयेन वरा (पन्थाः) मार्गः (ऋतस्य) जलस्य (सम्) (अयंस्त) उपयच्छति (रश्मिभिः) किरणैः (चक्षुः) नेत्रम् (भगस्य) सूर्यस्येव धनस्य। भग इति धनना०। निघं० २। १०। (रश्मिभिः) किरणैः (द्युक्षम्) द्युलोकस्थम् (मित्रस्य) सुहृदः (सादनम्) सीदन्ति यस्मिँस्तत्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (अर्यम्णः) न्यायाधीशस्य (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (च) (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दधाते) (बृहत्) महत् (उक्थ्यम्) वक्तुं योग्यम् (वयः) पक्षिणः (उपस्तुत्यम्) (बृहत्) (वयः) कमितारः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यप्रकाशेन पृथिव्यां मार्गा दृश्यन्ते तथैवोत्तमानां विदुषां सङ्गेन सत्या विद्याः प्रकाश्यन्ते यथा पक्षिण उत्तममाश्रयं प्राप्यानन्दन्ति तथा सद्विद्याः प्राप्य जनाः सदा सुखयन्ति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यप्रकाशात भूमीवरील मार्ग दिसतो तसेच उत्तम विद्वानांच्या संगतीने सत्य विद्या प्रकट होते. जशी पाखरे उत्तम स्थानाचा आश्रय घेऊन आनंद प्राप्त करतात. तसेच उत्तम विद्या प्राप्त करून माणसे नेहमी सुख मिळवितात. ॥ २ ॥