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प्र सु ज्येष्ठं॑ निचि॒राभ्यां॑ बृ॒हन्नमो॑ ह॒व्यं म॒तिं भ॑रता मृळ॒यद्भ्यां॒ स्वादि॑ष्ठं मृळ॒यद्भ्या॑म्। ता स॒म्राजा॑ घृ॒तासु॑ती य॒ज्ञेय॑ज्ञ॒ उप॑स्तुता। अथै॑नोः क्ष॒त्रं न कुत॑श्च॒नाधृषे॑ देव॒त्वं नू चि॑दा॒धृषे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra su jyeṣṭhaṁ nicirābhyām bṛhan namo havyam matim bharatā mṛḻayadbhyāṁ svādiṣṭham mṛḻayadbhyām | tā samrājā ghṛtāsutī yajñe-yajña upastutā | athainoḥ kṣatraṁ na kutaś canādhṛṣe devatvaṁ nū cid ādhṛṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। सु। ज्येष्ठ॑म्। नि॒ऽचि॒राभ्या॑म्। बृ॒हत्। नमः॑। ह॒व्यम्। म॒तिम्। भ॒र॒त॒। मृ॒ळ॒यत्ऽभ्या॑म्। स्वादि॑ष्ठम्। मृ॒ळ॒यत्ऽभ्या॑म्। ता। स॒म्ऽराजा॑। घृ॒तासु॑ती॒ इति॑ घृ॒तऽआ॑सुती। य॒ज्ञेऽय॑ज्ञे। उप॑ऽस्तुता। अथ॑। ए॒नोः॒। क्ष॒त्रम्। न। कुतः॑। च॒न। आ॒ऽधृषे॑। दे॒व॒ऽत्वम्। नु। चि॒त्। आ॒ऽधृषे॑ ॥ १.१३६.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:136» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:20» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले एक सौ छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में कौन किन से क्या लेकर कैसे हों, इस विषय को कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (मृडयद्भ्याम्) सुख देते हुओं के समान (निचिराभ्याम्) निरन्तर सनातन (मृडयद्भ्याम्) सुख करनेवाले अध्यापक उपदेशक के साथ (ज्येष्ठम्) अतीव प्रशंसा करने योग्य (स्वादिष्ठम्) अत्यन्त स्वादु (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य पदार्थ (बृहत्) बहुतसा (नमः) अन्न और (मतिम्) बुद्धि को (नु) शीघ्र (प्र, सु, भरत) अच्छे प्रकार सुन्दरता से स्वीकार करो और (यज्ञेयज्ञे) प्रत्येक यज्ञ में (उपस्तुता) प्राप्त हुए गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (घृतासुती) जिनका घी के साथ पदार्थों का सार निकालना (सम्राजा) जो अच्छी प्रकाशमान (ता) उन उक्त महाशयों को भली-भाँति ग्रहण करो, (अथ) इसके अनन्तर (एनोः) इन दोनों का (क्षत्रम्) राज्य (आधृषे) ढिठाई देने को (चित्) और (देवत्वम्) विद्वान् पन (आधृषे) ढिठाई देने को (कुतश्चन) कहीं से (न) न नष्ट हो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जो बहुत काल से प्रवृत्त पढ़ाने और उपदेश करनेवालों के समीप से विद्या और अच्छे उपदेशों को शीघ्र ग्रहण करते, वे चक्रवर्त्ति राजा होने के योग्य होते हैं और न इनका ऐश्वर्य्य कभी नष्ट होता है ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के केभ्यः किं गृहीत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ।

अन्वय:

हे मनुष्या यूयं मृळयद्भ्यामिदं निचिराभ्यां मृळयद्भ्यां सह ज्येष्ठं स्वादिष्ठं हव्यं बृहन्नमो मतिं च नु प्रसुभरत यज्ञेयज्ञ उपस्तुता घृतासुती सम्राजा ता प्रसुभरत। अथैनोः क्षत्रमाधृषे चिदपि देवत्वमाधृषे कुतश्चन न क्षीयेत ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) प्रकर्षे (सु) शोभने (ज्येष्ठम्) अतिशयेन प्रशस्यम् (निचिराभ्याम्) नितरां सनातनाभ्याम् (बृहत्) महत् (नमः) अन्नम् (हव्यम्) ग्रहीतुं योग्यम् (मतिम्) प्रज्ञाम् (भरत) स्वीकुरुत (मृळयद्भ्याम्) सुखयद्भ्याम् (स्वादिष्ठम्) अतिशयेन स्वादु (मृळयद्भ्याम्) सुखकारकाभ्यां मातापितृभ्यां सह (ता) तौ (सम्राजा) सम्यग्राजेते (घृतासुती) घृतेनासुतिः सवनं ययोस्तौ (यज्ञेयज्ञे) प्रतियज्ञम् (उपस्तुता) उपगतैर्गुणैः प्रशंसितौ (अथ) अनन्तरम् (एनोः) एनयोः। अत्र छान्दसो वर्णलोप इत्यकारलोपः। (क्षत्रम्) राज्यम् (न) निषेधे (कुतः) कस्मादपि (चन) (आधृषे) आधर्षितुम् (देवत्वम्) विदुषां भावम् (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (आधृषे) आधर्षितुम् ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - ये बहुकालात्प्रवृत्तानामध्यापकोदेशकानां सकाशाद्विद्यां सदुपदेशाँश्च सद्यो गृह्णन्ति ते चक्रवर्त्तिराजानो भवितुमर्हन्ति नात्रैषामैश्वर्यं कदाचिद्धीयते ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वायू व इन्द्र इत्यादी पदार्थांच्या दृष्टान्ताने माणसांसाठी विद्या व उत्तम शिक्षण यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - जे बराच काळ शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्याकडून विद्या व चांगल्या उपदेशांना तात्काळ ग्रहण करतात. ते चक्रवर्ती राजा होण्यायोग्य असतात, त्यांचे ऐश्वर्य कधी नष्ट होत नाही. ॥ १ ॥