वांछित मन्त्र चुनें

त्वं वृथा॑ न॒द्य॑ इन्द्र॒ सर्त॒वेऽच्छा॑ समु॒द्रम॑सृजो॒ रथाँ॑ इव वाजय॒तो रथाँ॑ इव। इ॒त ऊ॒तीर॑युञ्जत समा॒नमर्थ॒मक्षि॑तम्। धे॒नूरि॑व॒ मन॑वे वि॒श्वदो॑हसो॒ जना॑य वि॒श्वदो॑हसः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ vṛthā nadya indra sartave cchā samudram asṛjo rathām̐ iva vājayato rathām̐ iva | ita ūtīr ayuñjata samānam artham akṣitam | dhenūr iva manave viśvadohaso janāya viśvadohasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। वृथा॑। न॒द्यः॑। इ॒न्द्र॒। सर्त॑वे। अच्छ॑। स॒मु॒द्रम्। अ॒सृ॒जः॒। रथा॑न्ऽइव। वा॒ज॒य॒तः। रथा॑न्ऽइव। इ॒तः। ऊ॒तीः। अ॒यु॒ञ्ज॒त॒। स॒मा॒नम्। अर्थ॑म्। अक्षि॑तम्। धे॒नूःऽइ॑व। मन॑वे। वि॒श्वऽदो॑हसः। जना॑य। वि॒श्वऽदो॑हसः ॥ १.१३०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इस संसार में कौन प्रकाशित होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्या के अधिपति ! (त्वम्) आप जैसे (नद्यः) नदी (समुद्रम्) समुद्र को (वृथा) निष्प्रयोजन भर देती वैसे (रथानिव) रथों पर बैठनेहारों के समान (वाजयतः) संग्राम करते हुओं को (रथानिव) रथों के समान ही (सर्त्तवे) जाने को (अच्छ, असृजः) उत्तम रीति से कलायन्त्रों से युक्त मार्गों को बनावें वा (जनाय) धर्मयुक्त व्यवहार में प्रसिद्ध मनुष्य के लिये जो (विश्वदोहसः) समस्त जगत् को अपने गुणों से परिपूर्ण करते उनके समान (मनवे) विचारशील पुरुष के लिये (विश्वदोहसः) संसार सुख को परिपूर्ण करनेवाले होते हुए आप (धेनूरिव) दूध देनेवाली गौओं के समान (इतः) प्राप्त हुई (ऊतीः) रक्षादि क्रियाओं और (अक्षितम्) अक्षय (समानम्) समान अर्थात् काम के तुल्य (अर्थम्) पदार्थ का (अयुञ्जत) योग करते हैं, वे अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो पुरुष गौओं के समान सुख, रथ के समान धर्म के अनुकूल मार्ग का अवलम्ब कर धार्मिक न्यायाधीश के समान होकर सबको अपने समान करते हैं, वे इस संसार में प्रंशसित होते हैं ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केऽत्र प्रकाशिता जायन्त इत्याह ।

अन्वय:

हे इन्द्र त्वं यथा नद्यः समुद्रं वृथा सृजन्ति तथा रथानिव वाजयतो रथानिव सर्त्तवे अच्छासृजः। जनाय विश्वदोहस इव ये मनवे विश्वदोहसस्सन्तो भवन्तो धेनूरिवेत ऊती रक्षितं समानमर्थं चायुञ्जत तेऽत्यन्तमानन्दं प्राप्नुवन्ति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (वृथा) निष्प्रयोजनाय (नद्यः) (इन्द्र) विद्येश (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम् (अच्छ) उत्तमरीत्या (समुद्रम्) सागरम् (असृजः) सृजेः (रथाँइव) यथा रथानधिष्ठाय (वाजयतः) सङ्ग्रामयतः (रथाँइव) (इतः) प्राप्ताः (ऊतीः) रक्षाद्याः क्रियाः (अयुञ्जत) युञ्जते (समानम्) तुल्यम् (अर्थम्) द्रव्यम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (धेनूरिव) यथा दुग्धदात्रीर्गाः (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (विश्वदोहसः) विश्वं सर्वं जगद्गुणैर्दुहन्ति पिपुरति ते (जनाय) धर्म्ये प्रसिद्धाय (विश्वदोहसः) विश्वस्मिन् सुखप्रपूरकाः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्काराः। ये धेनुवत्सुखं रथवद्धर्म्यमार्गमवलम्ब्य धार्मिकन्यायाधीशवद्भूत्वा सर्वान् स्वसदृशान् कुर्वन्ति तेऽत्र प्रशंसिता जायन्ते ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष गाईसारखे सुख देतात. रथाप्रमाणे धर्मानुकूल मार्गाचे अवलंबन करतात, धार्मिक न्यायाधीशासारखे बनून सर्वांना स्वतःसारखे बनवितात ते या जगात प्रशंसित होतात. ॥ ५ ॥