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अवि॑न्दद्दि॒वो निहि॑तं॒ गुहा॑ नि॒धिं वेर्न गर्भं॒ परि॑वीत॒मश्म॑न्यन॒न्ते अ॒न्तरश्म॑नि। व्र॒जं व॒ज्री गवा॑मिव॒ सिषा॑स॒न्नङ्गि॑रस्तमः। अपा॑वृणो॒दिष॒ इन्द्र॒: परी॑वृता॒ द्वार॒ इष॒: परी॑वृताः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avindad divo nihitaṁ guhā nidhiṁ ver na garbham parivītam aśmany anante antar aśmani | vrajaṁ vajrī gavām iva siṣāsann aṅgirastamaḥ | apāvṛṇod iṣa indraḥ parīvṛtā dvāra iṣaḥ parīvṛtāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अवि॑न्दत्। दि॒वः। निऽहि॑तम्। गुहा॑। नि॒धि॑म्। वेः। न। गर्भ॑म्। परि॑ऽवीतम्। अश्म॑नि। अ॒न॒न्ते। अ॒न्तः। अश्म॑नि। व्र॒जम्। व॒ज्री। गवा॑म्ऽइव। सिसा॑सन्। अङ्गि॑रःऽतमः। अप॑। अ॒वृ॒णो॒त्। इषः॑। इन्द्रः॑। परि॑ऽवृताः। द्वारः॑। इषः॑। परि॑ऽवृताः ॥ १.१३०.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन परमात्मा को जान सकते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वज्री) शासना के लिये दण्ड धारण किये हुए (व्रजं, गवामिव) जैसे गौओं के समूह गोशाला में गमन करते जाते-आते वैसे (सिषासन्) जनों को ताड़ना देने अर्थात् दण्ड देने की इच्छा करता हुआ अथवा जैसे (अङ्गिरस्तमः) अति श्रेष्ठ (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्य (इषः) इच्छा करने योग्य (परीवृताः) अन्धकार से ढँपी हुई वीथियों को खोले वैसे (परीवृताः) ढपी हुई (इषः) इच्छाओं और (द्वारः) द्वारों को (अपावृणोत्) खोले तथा (अनन्ते) देश, काल, वस्तु भेद से न प्रतीत होते हुए (अश्मनि) आकाश में (अश्मनि) वर्त्तमान मेघ के (अन्तः) बीच (परिवीतम्) सब ओर से व्याप्त और अति मनोहर जल वा (वेः) पक्षी के (गर्भम्) गर्भ के (न) समान (गुहा) बुद्धि में (निहितम्) स्थित (निधिम्) जिसमें निरन्तर पदार्थ धरे जायें, उस निधिरूप परमात्मा को (दिवः) विज्ञान के प्रकाश से (अविदन्त्) प्राप्त होता है, वह अतुल सुख को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो योग के अङ्ग, धर्म, विद्या और सत्सङ्ग के अनुष्ठान से अपनी आत्मा में स्थित परमात्मा को जानें, वे सूर्य जैसे अन्धकार को वैसे अपने सङ्गियों की अविद्या छुड़ा विद्या के प्रकाश को उत्पन्न कर सबको मोक्षमार्ग में प्रवृत्त कराके उन्हें आनन्दित कर सकते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के परमात्मानं ज्ञातुं शक्नुवन्तीत्याह ।

अन्वय:

यो वज्री व्रज्रं गवामिव सिषासन्नङ्गिरस्तम इन्द्र इषः परीवृता इव परीवृता इषो द्वारश्चापावृणोदनन्तेऽश्मन्यश्मन्यन्तः परिवीतं वेर्गर्भं न गुहा निहितं निधिं परमात्मानं दिवोऽविन्दत्सोऽतुलं सुखमाप्नोति ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अविन्दत्) प्राप्नोति (दिवः) विज्ञानप्रकाशात् (निहितम्) स्थितम् (गुहा) गुहायां बुद्धौ (निधिम्) निधीयन्ते पदार्था यस्मिँस्तम् (वेः) पक्षिणः (न) इव (गर्भम्) (परिवीतम्) परितः सर्वतो वीतं व्याप्तं कमनीयं च जलम् (अश्मनि) मेघमण्डले (अनन्ते) देशकालवस्त्वपरिछिन्ने (अन्तः) मध्ये (अश्मनि) मेघे (व्रजम्) व्रजन्ति गावो यस्मिन्, तम् (वज्री) वज्रो दण्डः शासनार्थो यस्य सः (गवामिव) (सिषासन्) ताडयितुं दण्डयितुमिच्छन् (अङ्गिरस्तमः) अतिप्रशस्तः (अप) (अवृणोत्) वृणोति (इषः) एष्टव्या रथ्याः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सूर्यः (परीवृताः) परितोऽन्धकारेणावृताः (द्वारः) द्वाराणि (इषा) (परीवृताः) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये योगाङ्गधर्मविद्यासत्सङ्गानुष्ठानेन स्वात्मनि स्थितं परमात्मानं विजानीयुस्ते सूर्यस्तम इव स्वसङ्गिनामविद्यां निवार्य विद्याप्रकाशं जनयित्वा सर्वान् मोक्षमार्गे प्रवर्त्याऽऽनन्दितान् कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे योगाचे अंग, धर्म, विद्या व सत्संगाच्या अनुष्ठानाने आपल्या आत्म्यात स्थित परमेश्वराला जाणतात. सूर्य जसा अंधकार दूर करतो तसे ते आपल्या संगतीतील लोकांची अविद्या दूर करून विद्येचा प्रकाश उत्पन्न करून सर्वांना मोक्षमार्गात प्रवृत्त करून त्यांना आनंदित करू शकतात. ॥ ३ ॥