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पिबा॒ सोम॑मिन्द्र सुवा॒नमद्रि॑भि॒: कोशे॑न सि॒क्तम॑व॒तं न वंस॑गस्तातृषा॒णो न वंस॑गः। मदा॑य हर्य॒ताय॑ ते तु॒विष्ट॑माय॒ धाय॑से। आ त्वा॑ यच्छन्तु ह॒रितो॒ न सूर्य॒महा॒ विश्वे॑व॒ सूर्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pibā somam indra suvānam adribhiḥ kośena siktam avataṁ na vaṁsagas tātṛṣāṇo na vaṁsagaḥ | madāya haryatāya te tuviṣṭamāya dhāyase | ā tvā yacchantu harito na sūryam ahā viśveva sūryam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पिब॑। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। सु॒वा॒नम्। अद्रि॑ऽभिः। कोशे॑न। सि॒क्तम्। अ॒व॒तम्। न। वंस॑गः। त॒तृ॒षा॒णः। न। वंस॑गः। मदा॑य। ह॒र्य॒ताय॑। ते॒। तु॒विःऽत॑माय॒। धाय॑से। आ। त्वा॒। य॒च्छ॒न्तु॒। ह॒रितः॑। न। सूर्य॑म्। अहा॑। विश्वा॑ऽइव। सूर्य॑म् ॥ १.१३०.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभापति ! (तातृषाणः) अतीव पियासे (वंसगः) बैल के (न) समान बलिष्ठ (वंसगः) अच्छे विभाग करनेवाले आप (अद्रिभिः) शिलाखण्डों से (सुवानम्) निकालने के योग्य (कोशेन) मेघ से (अवतम्) बढ़े (सिक्तम्) और संयुक्त किये हुए के (न) समान (सोमम्) सुन्दर ओषधियों के रस को (पिब) अच्छे प्रकार पिओ (तुविष्टमाय) अतीव बहुत प्रकार (धायसे) धारणा करनेवाले (मदाय) आनन्द के लिये (हर्य्यताय) और कामना किये हुए (ते) आपके लिये यह दिव्य ओषधियों का रस प्राप्त होवे अर्थात् चाहे हुए (सूर्यम्) सूर्य को (अहा) (विश्वेव) सब दिन जैसे वा (सूर्यम्) सूर्यमण्डल को (हरितः) दिशा-विदिशा (न) जैसे वैसे (त्वा) आपको जो लोग (आ, यच्छन्तु) अच्छे प्रकार निरन्तर ग्रहण करें, वे सुख को प्राप्त होवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बड़े साधन और छोटे साधनों और आयुर्वेद अर्थात् वैद्यकविद्या की रीति से बड़ी-बड़ी ओषधियों के रसों को बनाकर उसका सेवन करते, वे आरोग्यवान् होकर प्रयत्न कर सकते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र वंसगो न वंसगस्त्वमद्रिभिः सुवानं कोशेनाऽवतं सिक्तं नेव सोमं पिब। तुविष्टमाय धायसे मदाय हर्य्यताय ते तुभ्यमयं सोम आप्नोतु सूर्यमहा विश्वेव सूर्यं हरिता न त्वा य आयच्छन्तु ते सुखमाप्नुवन्तु ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सोमम्) दिव्यौषधिरसम् (इन्द्र) सभेश (सुवानम्) सोतुमर्हम् (अद्रिभिः) शिलाखण्डादिभिः (कोशेन) मेघेन (सिक्तम्) संयुक्तम् (अवतम्) वृद्धम् (न) इव (वंसगः) संभक्ता (तातृषाणः) अतिशयेन पिपासितः (न) इव (वंसगः) वृषभः (मदाय) आनन्दाय (हर्यताय) कामिताय (ते) तुभ्यम् (तुविष्टमाय) अतिशयेन तुविर्बहुस्तस्मै। तुविरिति बहुना०। निघं० ३। १। (धायसे) धर्त्रे (आ) (त्वा) (यच्छन्तु) निगृह्णन्तु (हरितः) (न) इव (सूर्यम्) (अहा) अहानि (विश्वेव) विश्वानीव (सूर्यम्) ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये साधनोपसाधनैरायुर्वेदरीत्या महौषधिरसान् निर्माय सेवन्ते तेऽरोगा भूत्वा प्रयतितुं शक्नुवन्ति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे साधन व उपसाधन याद्वारे आयुर्वेद अर्थात वैद्यकशास्त्राच्या रीतीने महाऔषधींचा रस तयार करून त्याचे ग्रहण करतात ते निरोगी बनून प्रयत्नशील बनतात. ॥ २ ॥