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एन्द्र॑ या॒ह्युप॑ नः परा॒वतो॒ नायमच्छा॑ वि॒दथा॑नीव॒ सत्प॑ति॒रस्तं॒ राजे॑व॒ सत्प॑तिः। हवा॑महे त्वा व॒यं प्रय॑स्वन्तः सु॒ते सचा॑। पु॒त्रासो॒ न पि॒तरं॒ वाज॑सातये॒ मंहि॑ष्ठं॒ वाज॑सातये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

endra yāhy upa naḥ parāvato nāyam acchā vidathānīva satpatir astaṁ rājeva satpatiḥ | havāmahe tvā vayam prayasvantaḥ sute sacā | putrāso na pitaraṁ vājasātaye maṁhiṣṭhaṁ vājasātaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। इ॒न्द्र॒। या॒हि॒। उप॑। नः॒। प॒रा॒ऽवतः। न। अ॒यम्। अच्छ॑। वि॒दथा॑निऽइव। सत्ऽप॑तिः। अस्त॑म्। राजा॑ऽइव। सत्ऽप॑तिः। हवा॑महे। त्वा॒। व॒यम्। प्रय॑स्वन्तः। सु॒ते। सचा॑। पु॒त्रासः॑। न। पि॒तर॑म्। वाज॑ऽसातये। मंहि॑ष्ठम्। वाज॑ऽसातये ॥ १.१३०.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:130» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दश ऋचावाले एक सौ तीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजा और प्रजाजन आपस में प्रीति के साथ वर्त्तें, इस विषय को कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् राजन् ! (अयम्) यह शत्रुजन (विदथानीव) संग्रामों को जैसे वैसे आकर प्राप्त होता इससे आप (नः) हम लोगों के समीप (परावतः) दूर देश से (न) मत (उपायाहि) आइये किन्तु निकट से आइये (सत्पतिः) धार्मिक सज्जनों का पति (राजेव) जो प्रकाशमान उसके समान (सत्पतिः) सत्याचरण की रक्षा करनेवाले आप हमारे (अस्तम्) घर को प्राप्त हो (प्रयस्वन्तः) अत्यन्त प्रयत्नशील (वयम्) हम लोग (सचा) सम्बन्ध से (सुते) उत्पन्न हुए संसार में (वाजसातये) युद्ध के विभाग के लिये और (वाजसातये) पदार्थों के विभाग के लिये (पुत्रासः) पुत्रजन जैसे (पितरम्) पिता को (न) वैसे (मंहिष्ठम्) अति सत्कारयुक्त (त्वा) आपकी (अच्छ) अच्छे प्रकार (हवामहे) स्तुति करते हैं ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। समस्त राजप्रजाजन पिता और पुत्र के समान इस संसार में वर्त्तकर पुरुषार्थी हों ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजप्रजाजनाः परस्परं प्रीत्या वर्त्तेरन्नित्याह।

अन्वय:

हे इन्द्र अयं विदथानीवायात्यतस्त्वं नोऽस्मान् परावते नोपायाहि सत्पती राजेव सत्पतिस्त्वं नोऽस्माकमस्तमुपायाहि। प्रयस्वन्तो वयं सचा सुते वाजसातये वाजसातये च पुत्रासः पितरं नेव मंहिष्ठं त्वाच्छ हवामहे ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (याहि) प्राप्नुहि (उप) (नः) अस्मानस्माकं वा (परावतः) दूरदेशात् (न) निषेधे (अयम्) (अच्छा) निश्शेषार्थे अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विदथानीव) संग्रामानिव (सत्पतिः) सतां धार्मिकाणां पतिः। (अस्तम्) गृहम् (राजेव) (सत्पतिः) सत्याचाररक्षकः (हवामहे) स्तुमः (त्वा) त्वाम् (वयम्) (प्रयस्वन्तः) बहुप्रयत्नशीलाः (सुते) निष्पन्ने (सचा) समवायेन (पुत्रासः) (न) इव (पितरम्) जनकम् (वाजसातये) युद्धविभागाय (मंहिष्ठम्) अतिशयेन पूजितम् (वाजसातये) पदार्थविभागाय ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। सर्वे राजप्रजाजनाः पितापुत्रवदिह वर्त्तित्वा पुरुषार्थिनः स्युः ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा व प्रजा यांच्या कार्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजा व प्रजा यांनी या जगात पिता व पुत्राप्रमाणे वागून पुरुषार्थी व्हावे. ॥ १ ॥