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स्वाहा॑ य॒ज्ञं कृ॑णोत॒नेन्द्रा॑य॒ यज्व॑नो गृ॒हे। तत्र॑ दे॒वाँ उप॑ ह्वये॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svāhā yajñaṁ kṛṇotanendrāya yajvano gṛhe | tatra devām̐ upa hvaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वाहा॑। य॒ज्ञम्। कृ॒णो॒त॒न॒। इन्द्रा॑य। यज्व॑नः। गृ॒हे। तत्र॑। दे॒वान्। उप॑। ह्व॒ये॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:13» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस क्रियाकाण्ड को मनुष्य लोग किस प्रकार से करें, सो उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे शिल्पविद्या के सिद्ध यज्ञ करने और करानेवाले विद्वानो ! तुम लोग जैसे जहाँ (यज्वनः) यज्ञकर्त्ता के (गृहे) घर यज्ञशाला कलाकुशलता से सिद्ध किये हुए विमान आदि यानों में (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये परम विद्वानों को बुलाके (स्वाहा) उत्तम क्रियासमूह के साथ (यज्ञम्) जिस तीनों प्रकार के यज्ञ को (कृणोतन) सिद्ध करनेवाले हो, वैसे वहाँ मैं (देवान्) उन उक्त चतुर श्रेष्ठ विद्वानों को (उपह्वये) प्रार्थना के साथ बुलाता रहूँ॥१२॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोग विद्या तथा क्रियावान् होकर यथायोग्य बने हुए स्थानों में उत्तम विचार से क्रियासमूह से सिद्ध होनेवाले कर्मकाण्ड को नित्य करते हुए और वहाँ विद्वानों को बुलाकर वा आप ही उनके समीप जाकर उनकी विद्या और क्रिया की चतुराई को ग्रहण करें। हे सज्जन लोगो ! तुमको विद्या और क्रिया की कुशलता आलस्य से कभी नहीं छोड़नी चाहिये, क्योंकि ऐसी ही ईश्वर की आज्ञा सब मनुष्यों के लिये है॥१२॥इस तेरहवें सूक्त के अर्थ की अग्नि आदि दिव्य पदार्थों के उपकार लेने के विधान से बारहवें सूक्त के अभिप्राय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि साहबों ने विपरीत ही वर्णन किया है॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

एतं क्रियाकाण्डं मनुष्याः कथं कुर्य्युरित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे शिल्पकारिण ऋत्विजो ! यथा यूयं यत्र यज्वनो गृह इन्द्राय देवानाहूय स्वाहा यज्ञं कृणोतन तथा तत्राऽहं तानुपह्वये॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया (यज्ञम्) त्रिविधम् (कृणोतन) कुरुत। अत्र तकारस्थाने तनबादेशः। (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यकरणाय (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्ठातुः। अत्र सुयजोर्ङ्वनिप्। (अष्टा०३.२.१०३) अनेन ‘यज’ धातोर्ङ्वनिप् प्रत्ययः। (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायां कलाकौशलसिद्धविमानादियानसमूहे वा (तत्र) तेषु कर्मसु (देवान्) परमविदुषः (उप) निकटार्थे (ह्वये) आह्वये॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्याक्रियावन्तो भूत्वा सम्यग्विचारेण क्रियासमूहजन्यं कर्मकाण्डं गृहे गृहे नित्यं कुर्वन्तस्तत्र च विदुषामाह्वानं कृत्वा स्वयं वा तत्समीपं गत्वा तद्विद्याक्रियाकौशले स्वीकुर्वन्तु। नैव कदाचिद्युष्माभिरालस्येनैते उपेक्षणीये इति परमेश्वर उपदिशति॥१२॥अस्य त्रयोदशसूक्तार्थस्याग्न्यादिदिव्यपदार्थोपकारग्रहणार्थोक्तरीत्या द्वादशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्या व क्रिया यांनी युक्त होऊन यथायोग्य बनलेल्या यज्ञस्थळी उत्तम विचाराने, क्रियासमूहाद्वारे, प्रत्येक घरी नित्य कर्मकांड करीत जावे व तेथे विद्वानांना आमंत्रित करून स्वतः त्यांच्याजवळ जाऊन, त्यांची विद्या व क्रियाकौशल्य स्वीकारावे. कधी आळसाने सोडू नये किंवा उपेक्षा करू नये. कारण सर्व माणसांसाठी ईश्वराची अशी आज्ञा आहे.
टिप्पणी: या सूक्ताचे सायणाचार्य इत्यादी व युरोपियन विल्सन इत्यादी साहेबांनी विपरीत वर्णन केलेले आहे.