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इ॒ह त्वष्टा॑रमग्रि॒यं वि॒श्वरू॑प॒मुप॑ ह्वये। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iha tvaṣṭāram agriyaṁ viśvarūpam upa hvaye | asmākam astu kevalaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒ह। त्वष्टा॑रम्। अ॒ग्रि॒यम्। वि॒श्वऽरू॑पम्। उप॑। ह्व॒ये॒। अ॒स्माक॑म्। अ॒स्तु॒। केव॑लः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:13» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वहाँ क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - मैं जिस (विश्वरूपम्) सर्वव्यापक, (अग्रियम्) सब वस्तुओं के आगे होने तथा (त्वष्टारम्) सब दुःखों के नाश करनेवाले परमात्मा को (इह) इस घर में (उपह्वये) अच्छी प्रकार आह्वान करता हूँ, वही (अस्माकम्) उपासना करनेवाला हम लोगों का (केवलः) इष्ट और स्तुति करने योग्य (अस्तु) हो॥१॥१०॥।और मैं (विश्वरूपम्) जिसमें सब गुण हैं, (अग्रियम्) सब साधनों के आगे होने तथा (त्वष्टारम्) सब पदार्थों को अपने तेज से अलग-अलग करनेवाले भौतिक अग्नि के (इह) इस शिल्पविद्या में (उपह्वये) जिसको युक्त करता हूँ, वह (अस्माकम्) हवन तथा शिल्पविद्या के सिद्ध करनेवाले हम लोगों का (केवलः) अत्युत्तम साधन (अस्तु) होता है॥२॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को अनन्त सुख देनेवाले ईश्वर ही की उपासना करनी चाहिये तथा जो यह भौतिक अग्नि सब पदार्थों का छेदन करने, सब रूप गुण और पदार्थों का प्रकाश करने, सब से उत्तम और हम लोगों की शिल्पविद्या का अद्वितीय साधन है, उसका उपयोग शिल्पविद्या में यथावत् करना चाहिये॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तत्र किं किं कार्य्यमित्युपदिश्यते।

अन्वय:

अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारमग्निं परमात्मानमिहोपह्वये सम्यक् स्पर्द्धे स एवास्माकं केवल इष्टोऽस्त्वित्येकः।अहं यं विश्वरूपमग्रियं त्वष्टारं भौतिकमग्निमिहोपह्वये सोऽस्माकं केवलोऽसाधारणसाधनोऽस्तु भवतीति द्वितीयः॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) अस्यां शिल्पविद्यायामस्मिन् गृहे वा (त्वष्टारम्) दुःखानां छेदकं सर्वपदार्थानां विभाजितारं वा (अग्रियम्) सर्वेषां वस्तूनां साधनानां वा अग्रे भवम्। घच्छौ च। (अष्टा०४.४.११८) इति सूत्रेण भवार्थे घः प्रत्ययः। (विश्वरूपम्) विश्वस्य रूपं यस्मिन् परमात्मनि वा विश्वः सर्वो रूपगुणो यस्य तम् (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्पर्द्धे (अस्माकम्) उपासकानां हवनशिल्पविद्यासाधकानां वा (अस्तु) भवतु भवति। अत्र पक्षे व्यत्ययः। (केवलः) एक एवेष्टोऽसाधारणसाधनो वा॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैरनन्तानन्दप्रद ईश्वर एवोपास्योऽस्ति। तथाऽयमग्निः सर्वपदार्थच्छेदको रूपगुणः सर्वद्रव्यप्रकाशकोऽनुत्तमः शिल्पविद्याया अद्वितीयसाधनोऽस्माकं यथावदुपयोक्तव्योऽस्तीति मन्तव्यम्॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी अनंत सुख देणाऱ्या ईश्वराची उपासना केली पाहिजे. हा भौतिक अग्नी सर्व पदार्थांना छिन्न भिन्न करणारा, सर्व रूप, गुण पदार्थांचा प्रकाश करणारा, सर्वात उत्तम असून, शिल्पविद्येचे अद्वितीय साधन आहे. त्याचा शिल्पविद्येत यथायोग्य उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ १० ॥