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त्वं न॑ इन्द्र रा॒या परी॑णसा या॒हि प॒थाँ अ॑ने॒हसा॑ पु॒रो या॑ह्यर॒क्षसा॑। सच॑स्व नः परा॒क आ सच॑स्वास्तमी॒क आ। पा॒हि नो॑ दू॒रादा॒राद॒भिष्टि॑भि॒: सदा॑ पाह्य॒भिष्टि॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ na indra rāyā parīṇasā yāhi pathām̐ anehasā puro yāhy arakṣasā | sacasva naḥ parāka ā sacasvāstamīka ā | pāhi no dūrād ārād abhiṣṭibhiḥ sadā pāhy abhiṣṭibhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। रा॒या। परी॑णसा। या॒हि। प॒था। अ॒ने॒हसा॑। पु॒रः। या॒हि। अ॒र॒क्षसा॑। सच॑स्व। नः। प॒रा॒के। आ। सच॑स्व। अ॒स्त॒म्ऽई॒के। आ। पा॒हि। नः॒। दू॒रात्। आ॒रात्। अ॒भिष्टि॑ऽभिः। सदा॑। पा॒हि॒। अ॒भिष्टि॑ऽभिः ॥ १.१२९.९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:129» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उपदेश करनेवालों को कैसे बर्त्ताव रखना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्या वा ऐश्वर्ययुक्त विद्वान् ! (त्वम्) आप (परीणसा) बहुत (राया) धन से (नः) हम लोगों को (याहि) प्राप्त हो और (अनेहसः) रक्षामय जो धर्म उससे (अरक्षसा) और जिसमें दुष्ट प्राणी विद्यमान नहीं उस (पथा) मार्ग से (पुरः) प्रथम जो वर्त्तमान उनको (याहि) प्राप्त हो और (नः) हमको (पराके) दूर देश में (आ, सचस्व) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ मिलो और (अस्तमीके) समीप में हम लोगों को (आ, सचस्व) अच्छे प्रकार मिलो और जो (अभिष्टिभिः) सब ओर से क्रियाओं से सङ्ग करते उन (दूरात्) दूर और (आरात्) समीप से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो और (सदा) सब कभी (अभिष्टिभिः) सब ओर से चाही हुई क्रियाओं से हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - उपदेशकों को चाहिये कि धर्म के अनुकूल मार्ग से आप प्रवृत्त हों और सबको प्रवृत्त करा कर अपने उपदेश के द्वारा समीपस्थ और दूरस्थ पदार्थों का सङ्ग कर भ्रम मिटाने और सत्यविज्ञान की प्राप्ति कराने से सबकी निरन्तर अच्छी रक्षा करें ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुपदेशकैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे इन्द्र विद्वँस्त्वं परीणसा राया नोऽस्मान् याह्यनेहसाऽरक्षसा पथा पुरो याहि। नः पराके आसचस्व। अस्तमीके समीपेऽस्मानासचस्व। अभिष्टिभिर्दूरादाराच्च नः पाहि। सदाऽभिष्टिभिरस्मान्पाहि ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (नः) अस्मान् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यवन् (राया) श्रिया (परीणसा) बहुना। परीणस इति बहुना०। निघं० ३। १। (याहि) प्राप्नुहि (पथा) मार्गेण (अनेहसा) अहिंसामयेन धर्मेण (पुरः) पुरो वर्त्तमानान् (याहि) प्राप्नुहि (अरक्षसा) अविद्यमानानि दुष्टानि रक्षांसि यस्मिँस्तेन (सचस्व) समवेहि (नः) अस्मान् (पराके) पराक इति दूरना०। निघं० ३। २६। (आ) समन्तात् (सचस्व) समवेहि प्राप्नुहि (अस्तमीके) समीपे (आ) समन्तात् (पाहि) (नः) अस्मान् (दूरात्) (आरात्) समीपात् (अभिष्टिभिः) अभितः सर्वतो यजन्ति सङ्गच्छन्ति याभिस्ताभिः (सदा) सर्वस्मिन् काले (पाहि) रक्ष (अभिष्टिभिः) अभीष्टाभिः क्रियाभिः ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - उपदेशकैर्धर्म्ये मार्गे प्रवृत्य सर्वान् प्रवर्त्त्योपदेशद्वारा समीपस्थान् दूरस्थाँश्च सङ्गत्य भ्रमोच्छेदनेन सत्यविज्ञानप्रापणेन च सर्वे सततं संरक्षणीयाः ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - उपदेशकांनी धर्माच्या अनुकूल मार्गाने स्वतः प्रवृत्त व्हावे व सर्वांना प्रवृत्त करवून आपल्या उपदेशाद्वारे जवळ व दूर असलेल्या पदार्थांची संगती करून भ्रम नाहीसा करून सत्य विज्ञानाची प्राप्ती करवून सर्वांचे सदैव चांगले रक्षण करावे. ॥ ९ ॥