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तं य॑ज्ञ॒साध॒मपि॑ वातयामस्यृ॒तस्य॑ प॒था नम॑सा ह॒विष्म॑ता दे॒वता॑ता ह॒विष्म॑ता। स न॑ ऊ॒र्जामु॒पाभृ॑त्य॒या कृ॒पा न जू॑र्यति। यं मा॑त॒रिश्वा॒ मन॑वे परा॒वतो॑ दे॒वं भाः प॑रा॒वत॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ yajñasādham api vātayāmasy ṛtasya pathā namasā haviṣmatā devatātā haviṣmatā | sa na ūrjām upābhṛty ayā kṛpā na jūryati | yam mātariśvā manave parāvato devam bhāḥ parāvataḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म्। अपि॑। वा॒त॒या॒म॒सि॒। ऋ॒तस्य॑। प॒था। नम॑सा। ह॒विष्म॑ता। दे॒वऽता॑ता। ह॒विष्म॑ता। सः। नः॒। ऊ॒र्जाम्। उ॒प॒ऽआभृ॑ति। अ॒या। कृ॒पा। न। जू॒र्य॒ति॒। यम्। मा॒त॒रिश्वा॑। मन॑वे। प॒रा॒ऽवतः॑। दे॒वम्। भारिति॒ भाः। प॒रा॒ऽवतः॑ ॥ १.१२८.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:128» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (यम्) जिस (देवम्) गुण देनेवाले को (परावतः) दूर से जो (भाः) सूर्य की कान्ति उसके समान (मनवे) मनुष्य के लिये (मातरिश्वा) पवन (परावतः) दूर से धारण करता (सः) वह देनेवाला विद्वान् (अया) इस (कृपा) कल्पना से (नः) हम लोगों को (ऊर्जाम्) पराक्रमवाले पदार्थों का (उपाभृति) समीप आया हुआ आभूषण अर्थात् सुन्दरपन जैसे हो वैसे (न) नहीं (जूर्यति) रोगी करता और जैसे वह (देवताता) विद्वान् के समान (हविष्मता) बहुत देनेवाले (ऋतस्य) सत्य के (पथा) मार्ग से चलता है वैसे (हविष्मता) बहुत ग्रहण करनेवाले (नमसा) सत्कार के साथ (तम्) उस अग्नि के समान प्रतापी (यज्ञसाधम्) यज्ञ साधनेवाले विद्वान् को (अपि) निश्चय के साथ हम लोग (वातयामसि) पवन के समान सब कार्यों में प्रेरणा देवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्य जैसे पवन सब मूर्त्तिमान् पदार्थों को धारण करके प्राणियों को सुखी करता, वैसे ही विद्या और धर्म को धारण कर सब मनुष्यों को सुख देवे ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वान् किं करोतीत्याह ।

अन्वय:

यथा यं देवं परावतो भारिव मनवे मातरिश्वा परावतो देशाद्दधाति सोऽया कृपा न ऊर्जामुपाभृति न जूर्यति यथा च स देवताता हविष्मता ऋतस्य पथा गच्छति तथा हविष्मता नमसा तं यज्ञसाधमपि वयं वातयामसि ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) अग्निमिव विद्वांसम् (यज्ञसाधम्) यज्ञं साध्नुवन्तम् (अपि) (वातयामसि) वातइव प्रेरयेम (ऋतस्य) सत्यस्य (पथा) मार्गेण (नमसा) (सत्कारेण) (हविष्मता) बहुदानयुक्तेन (देवताता) देवेनेव (हविष्मता) बहुग्रहणं कुर्वता (सः) (नः) अस्मान् (ऊर्जाम्) पराक्रमवताम् (उपाभृति) उपगतमाभृत्याभूषणं च तत् (अया) अनया। अत्र पृषोदरादिना नलोपः। (कृपा) कल्पनया (न) निषेधे (जूर्यति) रुजति (यम्) (मातरिश्वा) वायुः (मनवे) मनुष्याय (परावतः) दूरदेशात् (देवम्) दातारम् (भाः) सूर्यदीप्तिरिव (परावतः) दूरदेशात् ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वान् मनुष्यो यथा वायुः सर्वान् मूर्त्तिमतः पदार्थान् धृत्वा प्राणिनः सुखयति तथैव विद्याधर्मौ धृत्वा सर्वान्मनुष्यान्सुखयतु ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू सर्व मूर्तिमान पदार्थ धारण करून प्राण्यांना सुखी करतो तसे विद्वान माणसांनी विद्या व धर्म धारण करून सर्व माणसांना सुख द्यावे. ॥ २ ॥