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अ॒यं जा॑यत॒ मनु॑षो॒ धरी॑मणि॒ होता॒ यजि॑ष्ठ उ॒शिजा॒मनु॑ व्र॒तम॒ग्निः स्वमनु॑ व्र॒तम्। वि॒श्वश्रु॑ष्टिः सखीय॒ते र॒यिरि॑व श्रवस्य॒ते। अद॑ब्धो॒ होता॒ नि ष॑ददि॒ळस्प॒दे परि॑वीत इ॒ळस्प॒दे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ jāyata manuṣo dharīmaṇi hotā yajiṣṭha uśijām anu vratam agniḥ svam anu vratam | viśvaśruṣṭiḥ sakhīyate rayir iva śravasyate | adabdho hotā ni ṣadad iḻas pade parivīta iḻas pade ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अयम्। जा॒य॒त॒। मनु॑षः॑। धरी॑मणि। होता॑। यजि॑ष्ठः। उ॒शिजा॑म्। अनु॑। व्र॒तम्। अ॒ग्निः। स्वम्। अनु॑। व्र॒तम्। वि॒श्वऽश्रु॑ष्टिः। स॒खि॒ऽय॒ते। र॒यिःऽइ॑व। श्र॒व॒स्य॒ते। अद॑ब्धः। होता॑। नि। स॒द॒त्। इ॒ळः। प॒दे। परि॑ऽवीतः। इ॒ळः। प॒दे ॥ १.१२८.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:128» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्यार्थी लोग कैसे होवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अयम्) यह मनुष्य (इळः) स्तुति के योग्य जगदीश्वर के (पदे) प्राप्त होने योग्य विशेष ज्ञान में जैसे वैसे (इळः) प्रशंसित धर्म के (पदे) पाने योग्य व्यवहार में (अदब्धः) हिंसा आदि दोषरहित (होता) उत्तम गुणों का ग्रहण करनेहारा (परिवीतः) जिसने सब ओर से ज्ञान पाया ऐसा हुआ (नि, षदत्) स्थिर होता (रयिरिव) वा धन के समान (विश्वश्रुष्टिः) जिसकी समस्त शीघ्र चालें ऐसा हुआ (श्रवस्यते) सुननेवाले के लिये (अग्निः) आग के समान वा (उशिजाम्) कामना करनेवाले मनुष्यों के (अनु) अनुकूल (व्रतम्) स्वभाव के तुल्य (अनु, व्रतं, स्वम्) अनुकूल ही अपने आचरण को प्राप्त वा (धरीमणि) जिसमें सुखों का धारण करते उस व्यवहार में (होता) देनेहारा (यजिष्ठः) और अत्यन्त सङ्ग करता हुआ (जायत) प्रकट होता वह (मनुषः) मननशील विद्वान् सबके साथ (सखीयते) मित्र के समान आचरण करनेवाला और सबको सत्कार करने योग्य होवे ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्या की इच्छा करनेवालों के अनुकूल चालचलन चलनेवाला सुशील धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छी निष्ठा रखनेवाला सबका मित्र शुभ गुणों का ग्रहण करनेवाला हो, वही मनुष्यों का मुकुटमणि अर्थात् अति श्रेष्ठ शिरधरा होवे ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्यार्थिनः कीदृशा भवेयुरित्याह ।

अन्वय:

योऽयमिडस्पद इवेडस्पदेऽदब्धो होता परिवीतस्सन् निषदद्रयिरिव विश्वश्रुष्टिः सन् श्रवस्यतेऽग्निरिवोशिजामनुव्रतमिवाऽनुव्रतं स्वं प्राप्तो धरीमणि होता यजिष्ठः सन् जायत स मनुषो सर्वैः सह सखीयते पूज्यश्च स्यात् ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (जायत) जायते (मनुषः) विद्वान् (धरीमणि) धरन्ति सुखानि यस्मिँस्तस्मिन्व्यवहारे (होता) आदाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गन्ता (उशिजाम्) कामयमानानां जनानाम् (अनु) आनुकूल्ये (व्रतम्) शीलम् (अग्निः) पावक इव (स्वम्) स्वकीयम् (अनु) (व्रतम्) (विश्वश्रुष्टिः) विश्वाः श्रुष्टस्त्वरिता गतयो यस्य सः। अत्र श्रु धातोर्बाहुलकादौणादिकः क्तिन्प्रत्ययः। (सखीयते) सखेवाचरति (रयिरिव) श्रीरिव (श्रवस्यते) श्रोष्यमाणाय (अदब्धः) अहिंसितः (होता) दाता (नि) नितराम् (सदत्) सीदति (इळः) स्तोतुमर्हस्य जगदीश्वरस्य (पदे) प्राप्तव्ये विज्ञाने (परिवीतः) परितः सर्वतो वीतं प्राप्तं विज्ञानं येन सः (इळः) प्रशंसितस्य धर्मस्य (पदे) पदनीये ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो विद्यां कामयमानानामनुगामि सुशीलो धर्म्ये व्यवहारे सुनिष्ठः सर्वस्य सुहृत् शुभगुणदाता स्यात् स एव मनुष्यमुकुटमणिर्भवेत् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाचे मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर साम्य आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जो विद्येची इच्छा करणाऱ्यांच्या अनुकूल वागणारा, सुशील, धर्मयुक्त व्यवहारात चांगली निष्ठा ठेवणारा, सर्वांचा मित्र, शुभ गुण ग्रहण करणारा असेल तोच माणसांचा मुकुटमणी अर्थात शिरोधार्य असेल. ॥ १ ॥