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विश्वा॑सां त्वा वि॒शां पतिं॑ हवामहे॒ सर्वा॑सां समा॒नं दम्प॑तिं भु॒जे स॒त्यगि॑र्वाहसं भु॒जे। अति॑थिं॒ मानु॑षाणां पि॒तुर्न यस्या॑स॒या। अ॒मी च॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑स॒ आ वयो॑ ह॒व्या दे॒वेष्वा वय॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvāsāṁ tvā viśām patiṁ havāmahe sarvāsāṁ samānaṁ dampatim bhuje satyagirvāhasam bhuje | atithim mānuṣāṇām pitur na yasyāsayā | amī ca viśve amṛtāsa ā vayo havyā deveṣv ā vayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वा॑साम्। त्वा॒। वि॒शाम्। पति॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। सर्वा॑साम्। स॒मा॒नम्। दम्ऽप॑तिम्। भु॒जे। स॒त्यऽगि॑र्वाहसम्। भु॒जे। अति॑थिम्। मानु॑षाणाम्। पि॒तुः। न। यस्य॑। आ॒स॒या। अ॒मी इति॑। च॒। विश्वे॑। अ॒मृता॑सः। आ। वयः॑। ह॒व्या। दे॒वेषु॑। आ। वयः॑ ॥ १.१२७.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:127» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कैसे राजा और प्रजाजनों की उन्नति हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! जैसे हम लोग (भुजे) शरीर में विद्या का आनन्द भोगने के लिये (विश्वासाम्) सब (विशाम्) प्रजाजनों के वा (सर्वासाम्) समस्त क्रियाओं के (पतिम्) पालनेहारे अधिपति (त्वा) तुझको (हवामहे) स्वीकार करते हैं (च) और जैसे (अमी) वे (देवेषु) (आ) अच्छे प्रकार (वयः) विद्यादि गुणों को चाहनेवाले (हव्या) ग्रहण करने योग्य ज्ञानों का ग्रहण किये और (आ, वयः) अच्छे प्रकार विद्या आदि गुणों को पाये हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अमर अर्थात् विद्या प्रकाश से मृत्यु दुःख से रहित हुए हम लोग (यस्य) जिसकी (आसया) बैठक के (पितुः) अन्न के (न) समान (भुजे) विद्यानन्द भोगने के लिये (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (समानम्) पक्षपातरहित (अतिथिम्) अतिथि के तुल्य सत्कार करने योग्य (सत्यगिर्वाहसम्) सत्यवाणी की प्राप्ति करानेवाले तुझ पालनेहारे को स्वीकार करते वैसे (दम्पतिम्) स्त्री-पुरुष का सेवन करते हैं ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब तक पक्षपातरहित समग्र विद्या को जाने हुए धर्मात्मा विद्वान् राज्य के अधिकारी नहीं होते हैं, तब तक राजा और प्रजाजनों की उन्नति भी नहीं होती है ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कथं राजप्रजाजनोन्नतिः स्यादित्याह ।

अन्वय:

हे मनुष्य यथा वयं भुजे विश्वासां विशां सर्वासां प्रजानां पतिं त्वा हवामहे। यथा चामी देवेष्वा वयो हव्या गृहीतवन्त आवयो विश्वेऽमृतासस्सन्तो वयं यस्यासया पितुर्न भुजे मानुषाणां समानमतिथिं सत्यगिर्वाहसं त्वां पतिं हवामहे तथा दम्पतिं भजामः ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वासाम्) सर्वासाम् (त्वा) त्वाम् (विशाम्) प्रजानाम् (पतिम्) स्वामिनम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (सर्वासाम्) समग्राणां क्रियाणाम् (समानम्) पक्षपातरहितम् (दम्पतिम्) स्त्रीपुरुषाख्यं द्वन्द्वम् (भुजे) शरीरे विद्यानन्दभोगाय (सत्यगिर्वाहसम्) सत्याया गिरः प्रापकम् (भुजे) विद्यानन्दभोगाय (अतिथिम्) अतिथिमिव पूजनीयम् (मानुषाणाम्) नराणाम् (पितुः) अन्नम् (न) (यस्य) (आसया) उपवेशनेन (अमी) (च) (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) मृत्युरहिताः (आ) अभितः (वयः) विद्याः कामयमानाः (हव्या) होतुमादातुमर्हाणि ज्ञानानि (देवेषु) विद्वत्सु (आ) समन्तात् (वयः) प्राप्तविद्याः ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यावत्पक्षपातरहिता आप्ता विद्वांसो राज्याऽधिकारिणो न भवन्ति तावद्राजप्रजयोरुन्नतिरपि न भवति ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जोपर्यंत भेदभावरहित संपूर्ण विद्या जाणलेले धर्मात्मा विद्वान राज्याचे अधिकारी नसतात. तोपर्यंत राजा व प्रजेची उन्नतीही होत नाही. ॥ ८ ॥