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प्र वो॑ म॒हे सह॑सा॒ सह॑स्वत उष॒र्बुधे॑ पशु॒षे नाग्नये॒ स्तोमो॑ बभूत्व॒ग्नये॑। प्रति॒ यदीं॑ ह॒विष्मा॒न्विश्वा॑सु॒ क्षासु॒ जोगु॑वे। अग्रे॑ रे॒भो न ज॑रत ऋषू॒णां जूर्णि॒र्होत॑ ऋषू॒णाम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo mahe sahasā sahasvata uṣarbudhe paśuṣe nāgnaye stomo babhūtv agnaye | prati yad īṁ haviṣmān viśvāsu kṣāsu joguve | agre rebho na jarata ṛṣūṇāṁ jūrṇir hota ṛṣūṇām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। म॒हे। सह॑सा। सह॑स्वते। उ॒षः॒ऽबुधे॑। प॒शु॒ऽसे। न। अ॒ग्नये॑। स्तोमः॑। ब॒भू॒तु॒। अ॒ग्नये॑। प्रति॑। यत्। ई॒म्। ह॒विष्मान्। विश्वा॑सु। क्षासु॑। जोगु॑वे। अग्रे॑। रे॒भः। न। ज॒र॒ते॒। ऋ॒षू॒णाम्। जूर्णिः॑। होता॑। ऋ॒षू॒णाम् ॥ १.१२७.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:127» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर समस्त मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (वः) तुम लोगों के (सहस्वते) बहुत बलयुक्त (उषर्बुधे) प्रत्येक प्रभात समय में जागने और (पशुषे) प्रबन्ध बाँधनेहारे (महे) बड़े (जोगुवे) निरन्तर उपदेशक (अग्नये) बिजुली के (न) समान (अग्नये) प्रकाशमान के लिये (विश्वासु) सब (क्षासु) भूमियों में (हविष्मान्) प्रशंसित ग्रहण किये हुए व्यवहार जिसमें विद्यमान वह (स्तोमः) प्रशंसा (सहसा) बल के साथ (प्र, बभूतु) समर्थ हो (रेभः) उपदेश करनेवाले के (न) समान (अग्रे) आगे (ऋषूणाम्) जिन्होंने विद्या पाई वा जो विद्या को जानना चाहते उनकी विद्याओं की (ईम्) सब ओर से (प्रति, जरते) प्रत्यक्ष में स्तुति करता (यत्) जो (होता) भोजन करनेवाला (जूर्णिः) जूड़ी आदि रोग से रोगी हो वह (ऋषूणाम्) जिन्होंने वैद्य विद्या पाई अर्थात् उत्तम वैद्य हैं, उनके समीप जाकर रोगरहित हो ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन विद्या प्राप्ति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वैसे इस संसार में सब मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरखिलैर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ।

अन्वय:

हे मनुष्या वः सहस्वत उषर्बुधे पशुषे महे जोगुवेऽग्नये नाग्नये विश्वासु क्षासु हविष्मान् स्तोमः सहसा प्रबभूतु रेभो नाग्रे ऋषूणां विद्या ईम् प्रति जरते यद्यो होता जूर्णिर्भवेत् स ऋषूणां सामीप्यं गत्वाऽरोगी भवेत् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्माकम् (महे) महते (सहसा) बलेन (सहस्वते) बहुबलयुक्ताय (उषर्बुधे) प्रत्युषःकालजागरकाय (पशुषे) बन्धकाय (न) इव (अग्नये) प्रकाशमानाय (स्तोमः) स्तुतिः (बभूतु) भवतु। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (अग्नये) विद्युतइव (प्रति) प्रत्यक्षे (यत्) (ईम्) सर्वतः (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि गृहीतानि विद्यन्ते यस्य सः (विश्वासु) सर्वासु (क्षासु) भूमिषु। क्षेति पृथिविना०। निघं० १। १। (जोगुवे) भृशमुपदेशकाय (अग्रे) प्रथमतः (रेभः) उपदेशकः (न) इव (जरते) स्तौति (ऋषूणाम्) प्राप्तविद्यानां जिज्ञासूनां वा (जूर्णिः) रोगवान् (होता) अत्ता (ऋषूणाम्) प्राप्तवैद्यकविद्यानाम् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो विद्याप्राप्तये प्रयतन्ते तथेह सर्वैर्मनुष्यैः प्रयतितव्यम् ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक विद्या प्राप्तीसाठी चांगला प्रयत्न करतात तसे या संसारात सर्व माणसांनी प्रयत्न केले पाहिजेत. ॥ १० ॥