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प्रा॒ता रत्नं॑ प्रात॒रित्वा॑ दधाति॒ तं चि॑कि॒त्वान्प्र॑ति॒गृह्या॒ नि ध॑त्ते। तेन॑ प्र॒जां व॒र्धय॑मान॒ आयू॑ रा॒यस्पोषे॑ण सचते सु॒वीर॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prātā ratnam prātaritvā dadhāti taṁ cikitvān pratigṛhyā ni dhatte | tena prajāṁ vardhayamāna āyū rāyas poṣeṇa sacate suvīraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒तरिति॑। रत्न॑म्। प्रा॒तः॒ऽइत्वा॑। द॒धा॒ति॒। तम्। चि॒कि॒त्वान्। प्र॒ति॒ऽगृह्य॑। नि। ध॒त्ते॒। तेन॑। प्र॒जाम्। व॒र्धय॑मानः। आयुः॑। रा॒यः। पोषे॑ण। स॒च॒ते॒। सु॒ऽवीरः॑ ॥ १.१२५.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:125» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले १२५ एकसौ पच्चीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इस संसार में कौन धन्यवाद के योग्य होकर सब सुखों को प्राप्त हो, इस विषय को कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (चिकित्वान्) विशेष ज्ञानवान् (प्रातरित्वा) प्रातःकाल में जागनेवाला (सुवीरः) सुन्दर वीर मनुष्य (प्रातः रत्नम्) प्रभात समय में रमण करने योग्य आनन्दमय पदार्थ को (दधाति) धारण करता और (प्रतिगृह्य) दे, लेकर फिर (तम्) उसको (नि, धत्ते) नित्य धारण वा (तेन) उस (रायस्पोषेण) धन की पुष्टि से (प्रजाम्) पुत्र-पौत्र आदि सन्तान और (आयुः) आयुर्दा को (वर्द्धयमानः) विद्या और उत्तम शिक्षा से बढ़ाता हुआ (सचते) उसका सम्बन्ध करता है, वह निरन्तर सुखी होता है ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - जो आलस्य को छोड़ धर्म सम्बन्धी व्यवहार से धन को पा उसकी रक्षा उसका स्वयं भोग कर दूसरों को भोग करा और दे-ले कर निरन्तर उत्तम यत्न करे, वह सब सुखों को प्राप्त होवे ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ कोऽत्र धन्यवादार्हो भूत्वाऽखिलसुखानि प्राप्नुयादित्याह ।

अन्वय:

यश्चिकित्वान्प्रातरित्वा सुवीरो मनुष्यः प्राता रत्नं दधाति प्रतिगृह्य तं निधत्ते तेन रायस्पोषेण प्रजामायुश्च वर्द्धयमानः सचते स सततं सुखी भवति ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रातः) प्रभाते (रत्नम्) रम्यानन्दं वस्तु (प्रातरित्वा) यः प्रातरेव जागरणमेति सः। अत्र प्रातरुपपदादिण् धातोः क्वनिप्। (दधाति) (तम्) (चिकित्वान्) विज्ञानवान् (प्रतिगृह्य) दत्वा गृहीत्वा च। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (नि) (धत्ते) नित्यं धरति (तेन) (प्रजाम्) पुत्रपौत्रादिकाम् (वर्द्धयमानः) विद्यासुशिक्षयोन्नयमानः (आयुः) जीवनम् (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सचते) समवैति (सुवीरः) शोभनश्चासौ वीरश्च सः ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - य आलस्यं विहाय धर्म्येण व्यवहारेण धनं प्राप्य संरक्ष्य भुक्त्वा भोजयित्वा दत्वा गृहीत्वा च सततं प्रयतेत स सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयात् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात धर्मानुकूल आचरणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - जो आळस सोडून धर्मासंबंधी व्यवहार करून धन प्राप्त करून त्याचे रक्षण करतो. स्वतः त्याचा भोग घेतो व इतरांनाही करवितो. निरंतर देणे-घेणे करून उत्तम प्रयत्न करतो त्याला सर्व सुख मिळते. ॥ १ ॥