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स्वसा॒ स्वस्रे॒ ज्याय॑स्यै॒ योनि॑मारै॒गपै॑त्यस्याः प्रति॒चक्ष्ये॑व। व्यु॒च्छन्ती॑ र॒श्मिभि॒: सूर्य॑स्या॒ञ्ज्य॑ङ्क्ते समन॒गा इ॑व॒ व्राः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svasā svasre jyāyasyai yonim āraig apaity asyāḥ praticakṣyeva | vyucchantī raśmibhiḥ sūryasyāñjy aṅkte samanagā iva vrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वसा॑। स्वस्रे॑। ज्याय॑स्यै। योनि॑म्। अ॒रै॒क्। अप॑। ए॒ति॒। अ॒स्याः॒। प्र॒ति॒ऽचक्ष्य॑ऽइव। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑। र॒श्मिऽभिः॑। सूर्य॑स्य। अ॒ञ्जि। अ॒ङ्क्ते॒। स॒म॒न॒गाःऽइ॑व। व्राः ॥ १.१२४.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे कन्या ! जैसे (व्युच्छन्ती) अन्धकार का निवारण करती हुई (व्राः) पदार्थों को स्वीकार करनेवाली प्रातःसमय की वेला (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के साथ (अञ्जि) प्रसिद्ध रूप को (समनगाइव) निश्चय किये स्थान को जानेवाली स्त्री के समान (अङ्क्ते) प्रकाश करती है वा जैसे (स्वसा) बहिन (ज्यायस्यै) जेठी (स्वस्रे) बहिन के लिये (योनिम्) अपने स्थान को (अरैक्) छोड़ती अर्थात् उत्थान देती तथा (अस्याः) इस अपनी बहिन के वर्त्तमान हाल को (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्ष देख के जैसे वैसे विवाह के लिये (अपैति) दूर जाती है, वैसी तूँ हो ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। छोटी बहिन जेठी बहिन के वर्त्तमान हाल को जान आप स्वयंवर विवाह के लिये दूर भी ठहरे हुए अपने अनुकूल पति का ग्रहण करे, जैसे शान्त पतिव्रता स्त्री अपने अपने पति को सेवन करती है, वैसे अपने पति का सेवन करे, जैसे सूर्य अपनी कान्ति के साथ और कान्ति सूर्य के साथ नित्य अनुकूलता से वर्त्ते, वैसे ही स्त्री-पुरुष हों ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे कन्ये यथा व्युच्छन्ती व्रा उषाः सूर्यस्य रश्मिभिः सहाञ्जि समनगाइवाङ्क्ते यथा वा स्वसा ज्यायस्यै स्वस्रे योनिमारैगस्या वर्त्तमानं प्रतिचक्ष्येवापैति विवाहाय दूरं गच्छति तथा त्वं भव ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वसा) भगिनी (स्वस्रे) भगिन्यै (ज्यायस्यै) ज्येष्ठायै (योनिम्) गृहम् (अरैक्) अतिरिणक्ति (अप) (एति) दूरं गच्छति (अस्याः) भगिन्याः (प्रतिचक्ष्येव) प्रत्यक्षं दृष्ट्वेव (व्युच्छन्ती) तमो विवासयन्ती (रश्मिभिः) किरणैः सह (सूर्यस्य) सवितुः (अञ्जि) व्यक्तं रूपम्, (अङ्क्ते) प्रकाशयति (समनगाइव) समनमवधारितं स्थानं गच्छन्तीव (व्राः) या वृणोति ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। कनिष्ठा भगिनी ज्येष्ठाया वर्त्तमानं वृत्तं विज्ञाय स्वयंवराय दूरेऽपि स्थितं योग्यं पतिं गृह्णीयात्। यथा शान्ताः पतिव्रताः स्त्रियः स्वं स्वं पतिं सेवन्ते तथा स्वं पतिं सेवेत यथा च सूर्यः स्वकान्त्या कान्तिः सूर्येण च सह नित्यमानुकूल्येन वर्त्तेत तथैव स्त्रीपुरुषौ स्याताम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. कनिष्ठ भगिनीने ज्येष्ठ भगिनीचे वर्तमान जाणावे व स्वयंवर विवाहासाठी दूर असलेल्या आपल्या अनुकूल पतीला स्वीकारावे. जशी शांत पतिव्रता स्त्री आपल्या पतीचा स्वीकार करते तसा आपल्या पतीचा स्वीकार करावा. जसा सूर्य स्वतःच्या प्रभेसह व प्रभा सूर्यासह नित्य वसते तसे स्त्री-पुरुषांनी एकमेकाच्या अनुकूल वागावे. ॥ ८ ॥