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अ॒भ्रा॒तेव॑ पुं॒स ए॑ति प्रती॒ची ग॑र्ता॒रुगि॑व स॒नये॒ धना॑नाम्। जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑ उ॒षा ह॒स्रेव॒ नि रि॑णीते॒ अप्स॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhrāteva puṁsa eti pratīcī gartārug iva sanaye dhanānām | jāyeva patya uśatī suvāsā uṣā hasreva ni riṇīte apsaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भ्रा॒ताऽइ॑व। पुं॒सः। ए॒ति॒। प्र॒ती॒ची। ग॒र्त॒ऽआ॒रुक्ऽइ॑व। स॒नये॑। धना॑नाम्। जा॒याऽइ॑व। पत्ये॑। उ॒श॒ती। सु॒ऽवासाः॑। उ॒षाः। ह॒स्राऽइ॑व। नि। रि॒णी॒ते॒। अप्सः॑ ॥ १.१२४.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - यह (उषाः) प्रातःसमय की वेला (प्रतीची) प्रत्येक स्थान को पहुँचती हुई (अभ्रातेव) बिना भाई की कन्या जैसे (पुंसः) पुरुष को प्राप्त हो उसके समान वा जैसे (गर्त्तारुगिव) दुःखरूपी गढ़े में पड़ा हुआ जन (धनानाम्) धन आदि पदार्थों के (सनये) विभाग करने के लिये राजगृह को प्राप्त हो वैसे सब ऊँचे-नीचे पदार्थों को (एति) पहुँचती तथा (पत्ये) अपने पति के लिये (उशती) कामना करती हुई (सुवासाः) और सुन्दर वस्त्रोंवाली (जायेव) विवाहिता स्त्री के समान पदार्थों का सेवन करती और (हस्रेव) हँसती हुई स्त्री के तुल्य (अप्सः) रूप को (नि, रिणीते) निरन्तर प्राप्त होती है ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में चार उपमालङ्कार हैं। जैसे विना भाई की कन्या अपनी प्रीति से चाहे हुए पति को आप प्राप्त होती वा जैसे न्यायाधीश राजा, राजपत्नी और धन आदि पदार्थों के विभाग करने के लिये न्यायासन अर्थात् राजगद्दी को, जैसे हँसमुखी स्त्री आनन्दयुक्त पति को प्राप्त होती और अच्छे रूप से अपने हावभाव को प्रकाशित करती, वैसे ही यह प्रातःसमय की वेला है, यह समझना चाहिये ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

इयमुषाः प्रतीची सत्यभ्रातेव पुंसो धनानां सनये गर्त्तारुगिव सर्वानेति पत्य उशती सुवासा जायेव पदार्थान् सेवते हस्रेव अप्सो निरिणीते ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभ्रातेव) यथाऽबन्धुस्तथा (पुंसः) पुरुषस्य (एति) प्राप्नोति (प्रतीची) प्रत्यञ्चतीति (गर्त्तारुगिव) गर्ते आरुगारोहणं गर्त्तारुक् तद्वत् (सनये) विभागाय (धनानाम्) द्रव्याणाम् (जायेव) स्त्रीव (पत्ये) स्वस्वामिने (उशती) कामयमाना (सुवासाः) शोभनानि वासांसि यस्याः सा (उषाः) (हस्रेव) हसन्तीव (नि) (रिणीते) प्राप्नोति (अप्सः) रूपम्। अप्स इति रूपना०। निघं० ३। ७। ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र चत्वार उपमालङ्काराः। यथा भ्रातृरहिता कन्या स्वप्रीतं पतिं स्वयं प्राप्नोति, यथा न्यायाधीशो राजा राजपत्नीधनानां विभागाय न्यायाऽऽसनमाप्नोति, यथा प्रसन्नवदना स्त्री आनन्दितं पतिं प्राप्नोति सुरूपेण हावभावं च प्रकाशयति तथैवेयमुषा अस्तीति वेद्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात चार उपमालंकार आहेत. जशी भ्रातृहीन कन्या आपल्या प्रेमाने अभिलषित पतीला स्वतः प्राप्त करते. न्यायाधीश, राजा, राजपत्नी व धन इत्यादींचा विभाग करण्यासाठी न्यायासन अर्थात राजसिंहासन प्राप्त करतो व जशी हसतमुख स्त्री आनंदयुक्त पतीला प्राप्त होते व सुंदर रूपाने आपले भाव प्रदर्शित करते तशीच ही प्रातःकाळची वेळ असते, हे समजले पाहिजे. ॥ ७ ॥