वांछित मन्त्र चुनें

पूर्वे॒ अर्धे॒ रज॑सो अ॒प्त्यस्य॒ गवां॒ जनि॑त्र्यकृत॒ प्र के॒तुम्। व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑य॒ ओभा पृ॒णन्ती॑ पि॒त्रोरु॒पस्था॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pūrve ardhe rajaso aptyasya gavāṁ janitry akṛta pra ketum | vy u prathate vitaraṁ varīya obhā pṛṇantī pitror upasthā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पूर्वे॑। अर्धे॑। रज॑सः। अ॒प्त्यस्य॑। गवा॑म्। जनि॑त्री। अ॒कृ॒त॒। प्र। के॒तुम्। वि। ऊँ॒ इति॑। प्र॒थ॒ते॒। वि॒ऽत॒रम्। वरी॑यः। आ। उ॒भा। पृ॒णन्ती॑। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्था॑ ॥ १.१२४.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे प्रातःसमय की वेला कन्या के तुल्य (उभा) दोनों लोकों को (पृणन्ती) सुख से पूरती और (पित्रोः) अपने माता-पिता के समान भूमि और सूर्यमण्डल की (उपस्था) गोद में ठहरी हुई (वितरम्) जिससे विविध प्रकार के दुःखों से पार होते हैं, उस (वरीयः) अत्यन्त उत्तम काम को (वि, उ, प्रथते) विशेष करके तो विस्तारती तथा (गवाम्) सूर्य की किरणों को (जनित्री) उत्पन्न करनेवाली (अप्त्यस्य) विस्तार युक्त संसार में हुए (रजसः) लोक समूह के (पूर्वे) प्रथम आगे वर्त्तमान (अर्द्धे) आधे भाग में (केतुम्) किरणों को (प्र, आ, अकृत) प्रसिद्ध करती है, वैसा वर्तमान करती हुई स्त्री उत्तम होती है ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। प्रभात वेला से प्रसिद्ध हुआ सूर्यमण्डल का प्रकाश भूगोल के आधे भाग में सब कभी उजेला करता है और आधे भाग में रात्रि होती है, उन दिन रात्रि के बीच में प्रातःसमय की वेला विराजमान है, ऐसे निरन्तर रात्रि प्रभातवेला और दिन क्रम से वर्त्तमान हैं। इससे क्या आया कि जितना पृथिवी का प्रदेश सूर्यमण्डल के आगे होता, उतने में दिन और जितना पीछे होता जाता, उतने में रात्रि होती तथा सायं और प्रातःकाल की सन्धि में उषा होती है, इसी उक्त प्रकार से लोकों के घूमने के द्वारा ये सायं प्रातःकाल भी घूमते से दिखाई देते हैं ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथोषा उभा लोकौ पृणन्ती पित्रोरुपस्थासती वितरं वरीयो व्युप्रथते गवां जनित्र्यप्त्यस्य रजसः पूर्वेऽर्द्धे केतुं प्राकृत तथा वर्त्तमाना भार्य्योत्तमा भवति ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पूर्वे) सम्मुखे वर्त्तमाने (अर्द्धे) (रजसः) लोकसमूहस्य (अप्त्यस्य) अप्तौ विस्तीर्णे संसारे भवस्य (गवाम्) किरणानाम् (जनित्री) उत्पादिका (अकृत) करोति (प्र) (केतुम्) किरणम् (वि) (उ) वितर्के (प्रथते) विस्तृणोति (वितरम्) विविधानि दुःखानि तरन्ति येन कर्मणा तत् (वरीयः) अतिशयेन वरम् (आ) (उभा) (पृणन्ती) सुखयन्ती (पित्रोः) जनकयोरिव भूमिसूर्ययोः (उपस्था) क्रोडे तिष्ठति सा ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। उषसउत्पन्नः सूर्यप्रकाशो भूगोलार्द्धे सर्वदा प्रकाशतेऽपरेऽर्द्धे रात्रिर्भवति तयोर्मध्ये सर्वदोषा विराजत एवं नैरन्तर्येण रात्र्युषर्दिनानि क्रमेण वर्त्तन्तेऽतः किमागतं यावान् भूगोलप्रदेशः सूर्यस्य संनिधौ तावति दिनं यावानसंनिधौ तावति रात्रिः। सन्ध्योरुषाश्चैवं लोकभ्रमणद्वारैतान्यपि भ्रमन्तीव दृश्यन्ते ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्रभात समयी उगवलेल्या सूर्यमंडळाचा प्रकाश भूगोलाच्या अर्ध्या भागात पडतो तर अर्ध्या भागात रात्र असते. त्या दिवस व रात्रीच्या मध्ये प्रातःकाळची वेळ विराजमान असते. सदैव रात्र, प्रभातकाळ व दिनक्रम असे चालू असतात. यावरून हे स्पष्ट होते की, पृथ्वीचा जेवढा भाग सूर्यमंडळासमोर येतो त्यावेळी दिवस. जितका मागे जातो तितकी रात्र होते व संध्याकाळ व प्रातःकाळच्या संधीत उषा असते. याचप्रकारे लोक (गोल) फिरल्यामुळे हे सायंकाळ व प्रातःकाळही फिरत असल्यासारखे वाटतात. ॥ ५ ॥