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उत्ते॒ वय॑श्चिद्वस॒तेर॑पप्त॒न्नर॑श्च॒ ये पि॑तु॒भाजो॒ व्यु॑ष्टौ। अ॒मा स॒ते व॑हसि॒ भूरि॑ वा॒ममुषो॑ देवि दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ut te vayaś cid vasater apaptan naraś ca ye pitubhājo vyuṣṭau | amā sate vahasi bhūri vāmam uṣo devi dāśuṣe martyāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। ते॒। वयः॑। चि॒त्। व॒स॒तेः। अ॒प॒प्त॒न्। नरः॑। च॒। ये। पि॒तु॒ऽभाजः॑। विऽउ॑ष्टौ। अ॒मा। स॒ते। व॒ह॒सि॒। भूरि॑। वा॒मम्। उषः॑। दे॒वि॒। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य ॥ १.१२४.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:12 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) मनुष्यो ! (ये) जो (पितुभाजः) अन्न का विभाग करनेवाले तुम लोग (चित्) भी जैसे (वयः) अवस्था को (वसतेः) वसीति से (उत् अपप्तन्) उत्तमता के साथ प्राप्त होते वैसे ही (व्युष्टौ) विशेष निवास में (अमा) समीप के घर वा (सते) वर्त्तमान व्यवहार के लिये होओ और हे (उषः) प्रातःसमय के प्रकाश के समान विद्याप्रकाशयुक्त (देवि) उत्तम व्यवहार की देनेवाली स्त्री ! जो तूँ (च) भी (दाशुषे) देनेवाले (मर्त्याय) अपने पति के लिये तथा समीप के घर और वर्त्तमान व्यवहार के लिये (भूरि) बहुत (वामम्) प्रशंसनीय व्यवहार की (वहसि) प्राप्ति करती, उस (ते) तेरे लिये उक्त व्यवहार की प्राप्ति तेरा पति भी करे ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पखेरू ऊपर और नीचे जाते हैं, वैसे प्रातःसमय की वेला रात्रि और दिन के ऊपर और नीचे जाती है तथा जैसे स्त्री पति के प्रियाचरण को करे, वैसे ही पति भी स्त्री के प्यारे आचरण को करे ॥ १२ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे नरो ये पितुभाजो यूयं चिद् यथा वयो वसतेरुदपप्तन् तथा व्युष्टावमा सते भवत। हे उषर्वद्देवि स्त्रि या त्वं च दाशुषे मर्त्यायामासते भूरि वामं वहसि तस्यै ते तुभ्यमेतत्पतिरपि वहतु ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (ते) तुभ्यम् (वयः) (चित्) अपि (वसतेः) निवासात् (अपप्तन्) पतन्ति (नरः) मनुष्याः (च) (ये) (पितुभाजः) अन्नस्य विभाजकाः (व्युष्टौ) विशिष्टे निवासे (अमा) समीपस्थगृहाय (सते) वर्त्तमानाय (वहसि) (भूरि) बहु (वामम्) प्रशस्यम् (उषः) उषर्वद्विद्याप्रकाशयुक्ते (देवि) दात्रि (दाशुषे) दात्रे (मर्त्याय) नराय पतये ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पक्षिण उपर्य्यधो गच्छन्ति तथोषा रात्रिदिनयोरुपर्य्यधो गच्छति, यथा स्त्री पत्युः प्रियाचरणं कुर्य्यात्तथैव पतिरपि करोतु ॥ १२ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पक्षी वर-खाली उडतात तशी प्रातःकाळची वेळ रात्र व दिवसाच्या वर-खाली जाते. जी स्त्री पतीबरोबर प्रियाचरण करते तसेच तिच्या पतीनेही तिच्याबरोबर करावे. ॥ १२ ॥