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प्र बो॑धयोषः पृण॒तो म॑घो॒न्यबु॑ध्यमानाः प॒णय॑: ससन्तु। रे॒वदु॑च्छ म॒घव॑द्भ्यो मघोनि रे॒वत्स्तो॒त्रे सू॑नृते जा॒रय॑न्ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra bodhayoṣaḥ pṛṇato maghony abudhyamānāḥ paṇayaḥ sasantu | revad uccha maghavadbhyo maghoni revat stotre sūnṛte jārayantī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। बो॒ध॒य॒। उ॒षः॒। पृ॒ण॒तः। म॒घो॒नि॒। अबु॑ध्यमानाः। प॒णयः॑। स॒स॒न्तु॒। रे॒वत्। उ॒च्छ॒। म॒घव॑त्ऽभ्यः। म॒घो॒नि॒। रे॒वत्। स्तो॒त्रे। सू॒नृ॒ते॒। जा॒रय॑न्ती ॥ १.१२४.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:124» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघोनि) उत्तम धनयुक्त (उषः) प्रभातवेला के तुल्य वर्त्तमान स्त्री ! तूँ जो (अबुध्यमानाः) अचेत नींद में डूबे हुए वा (पणयः) व्यवहारयुक्त प्राणी प्रभात समय वा दिन में (ससन्तु) सोवें उनकी (पृणतः) पालना करनेवाले पुष्ट प्राणियों को प्रातःसमय की वेला के प्रकाश के समान (प्र, बोधय) बोध करा। हे (मघोनि) अतीव धन इकट्ठा करनेवाली (सूनृते) उत्तम सत्यस्वभावयुक्त युवति ! तूँ प्रभात वेला के समान (जारयन्ती) अवस्था व्यतीत कराती हुई (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवानों के लिये (रेवत्) उत्तम धनयुक्त व्यवहार जैसे हो, वैसे (स्तोत्रे) स्तुति प्रशंसा करनेवाले के लिये (रेवत्) स्थिर धन की (उच्छ) प्राप्ति करा ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। किसी को रात्रि के पिछले पहर में वा दिन में न सोना चाहिये क्योंकि नींद और दिन के घाम आदि की अधिक गरमी के योग से रोगों की उत्पत्ति होने से तथा काम और अवस्था की हानि से, जैसे पुरुषार्थ की युक्ति से बहुत धन को प्राप्त होता, वैसे सूर्योदय से पहिले उठ कर यत्नवान् पुरुष दरिद्रता का त्याग करता है ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मघोन्युषः स्त्रि त्वं येऽबुध्यमानाः पणयः उषस्समये दिने वा ससन्तु तान् पृणत उषर्वत् प्रबोधय। हे मघोनि सूनृते त्वमुषर्वज्जारयन्ती मघवद्भ्यो रेवत् स्तोत्रे रेवदुच्छ प्रापय ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (बोधय) (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (पृणतः) पालयतः पुष्टान् प्राणिनः (मघोनि) पूजितधनयुक्ते (अबुध्यमानाः) (पणयः) व्यवहारयुक्ताः (ससन्तु) स्वपन्तु (रेवत्) प्रशस्तधनवत् (उच्छ) (मघवद्भ्यः) प्रशंसितधनेभ्यः (मघोनि) बहुधनकारिके (रेवत्) नित्यं संबद्धं धनम् (स्तोत्रे) स्तावकाय (सूनृते) सुष्ठुसत्यस्वभावे (जारयन्ती) वयो गमयन्ती ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। न केनचिद् रात्रेः पश्चिमे यामे दिने वा शयितव्यम्। कुतो निद्रादिनयोरधिकोष्णतायोगेन रोगाणां प्रादुर्भावात् कार्यावस्थयोर्हानेश्च। यथा पुरुषार्थयुक्त्या पुष्कलं धनं प्राप्नोति तथा सूर्योदयात् प्रागुत्थाय यत्नवान् दारिद्र्यं जहाति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. कुणीही रात्रीच्या चौथ्या प्रहरी किंवा दिवसा झोपू नये. कारण झोप व अधिक उष्णतेमुळे रोग उत्पन्न होतात व कार्य आणि अवस्था यांची हानी होते. जसे पुरुषार्थाने युक्तिपूर्वक पुष्कळ धन प्राप्त होते तसे सूर्योदयापूर्वी उठून उद्योगी पुरुष दारिद्र्याचा त्याग करतो. ॥ १० ॥