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अपा॒न्यदेत्य॒भ्य१॒॑न्यदे॑ति॒ विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ सं च॑रेते। प॒रि॒क्षितो॒स्तमो॑ अ॒न्या गुहा॑क॒रद्यौ॑दु॒षाः शोशु॑चता॒ रथे॑न ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apānyad ety abhy anyad eti viṣurūpe ahanī saṁ carete | parikṣitos tamo anyā guhākar adyaud uṣāḥ śośucatā rathena ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अप॑। अ॒न्यत्। एति॑। अ॒भि। अ॒न्यत्। ए॒ति॒। विषु॑रूपे॒ इति॒ विषु॑ऽरूपे। अह॑नी॒ इति॑। सम्। च॒रे॒ते॒ इति॑। प॒रि॒ऽक्षितोः॑। तमः॑। अ॒न्या। गुहा॑। अ॒कः॒। अद्यौ॑त्। उ॒षाः। शोशु॑चता। रथे॑न ॥ १.१२३.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विषुरूपे) संसार में व्याप्त (अहनी) रात्रि और दिन एक साथ (सं, चरेते) सञ्चार करते अर्थात् आते-जाते हैं उनमें (परिक्षितोः) सब ओर से वसनेहारे अन्धकार और उजेले के बीच से (गुहा) अन्धकार से संसार को ढाँपनेवाली (तमः) रात्री (अन्या) और कामों को (अकः) करती तथा (उषाः) सूर्य के प्रकाश से पदार्थों को तपानेवाला दिन (शोशुचता) अत्यन्त प्रकाश और (रथेन) रमण करने योग्य रूप से (अद्यौत्) उजेला करता (अन्यत्) अपने से भिन्न प्रकाश को (अप, एति) दूर करता तथा (अन्यत्) अन्य प्रकाश को (अभ्येति) सब ओर से प्राप्त होता, इस सब व्यवहार के समान स्त्री-पुरुष अपना वर्त्ताव वर्तें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस जगत् में अन्धेरा-उजेला दो पदार्थ हैं, जिनसे सदैव पृथिवी आदि लोकों के आधे भाग में दिन और आधे में रात्रि रहती है। जो वस्तु अन्धकार को छोड़ता वह उजेले का ग्रहण करता और जितना प्रकाश अन्धकार को छोड़ता उतना रात्रि लेती, दोनों पारी से सदैव अपनी व्याप्ति के साथ पाये-पाये हुए पदार्थ को ढाँपते और दोनों एक साथ वर्त्तमान हैं। उनका जहाँ-जहाँ संयोग है वहाँ-वहाँ संध्या और जहाँ-जहाँ वियोग होता अर्थात् अलग होते वहाँ-वहाँ रात्रि और दिन होता। जो स्त्री-पुरुष ऐसे मिल और अलग होकर दुःख के कारणों को छोड़ते और सुख के कारणों को ग्रहण करते वे सदैव आनन्दित होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

ये विषुरूपे अहनी रात्रिदिने सह संचरेते तयोः परिक्षितोस्तमः प्रकाशयोर्मध्याद्गुहातमोऽन्याऽकः कृत्यानि करोति उषाः शोशुचता रथेनाद्यौत्। अन्यदपैति। अन्यदभ्येतीव दम्पती वर्तेताम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अप) (अन्यत्) (एति) प्राप्नोति (अभि) (अन्यत्) (एति) (विषुरूपे) व्याप्तस्वरूपे (अहनी) रात्रिदिने (सम्) (चरेते) (परिक्षितोः) सर्वतो निवसतोः। अत्र तुमर्थे तोसुन्। (तमः) रात्री (अन्या) भिन्नानि (गुहा) आच्छादिका (अकः) करोति (अद्यौत्) द्योतयति (उषाः) दिनम् (शोशुचता) अत्यन्तं प्रकाशमानेन (रथेन) रम्येण स्वरूपेण ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अस्मिञ् जगति तमः प्रकाशरूपौ द्वौ पदार्थौ स्तः, याभ्यां सदा लोकार्द्धे दिनं रात्रिश्च वर्तेते। यद्वस्तु तमस्त्यजति तत् त्विषं गृह्णाति यावद्दीप्तिस्तमस्त्यजति तावत्तमिस्रादत्ते द्वौ पर्य्यायैण सदैव स्वव्याप्त्या प्राप्तं प्राप्तं द्रव्यमाच्छादयतः सहैव वर्तेते तयोर्यत्र यत्र संयोगस्तत्र तत्र संध्या यत्र यत्र वियोगस्तत्र तत्र रात्रिर्दिनं च यौ स्त्रीपुरुषावेवं संयुक्तौ वियुक्तौ च भूत्वा दुःखनिमित्तानि जहीतः सुखकारणानि चादत्तस्तौ सदानन्दितौ भवतः ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. या जगात काळोख व प्रकाश हे दोन पदार्थ आहेत. त्यामुळे सदैव पृथ्वी इत्यादीवर अर्ध्या भागावर दिवस व अर्ध्या भागावर रात्र असते. जी वस्तू अंधःकाराचा त्याग करते ती प्रकाशाचा स्वीकार करते. जितका प्रकाश अंधकाराचा त्याग करतो तितकी रात्र होते. दोन्ही पाळीपाळीने सदैव आपल्या व्याप्तीने पदार्थाला झाकतात. ते दोन्ही बरोबरच असतात. त्यांचा जिथे जिथे संयोग होतो. ती संध्याकाळ असते व जिथे जिथे वियोग होतो अर्थात वेगवेगळे होतात, तेथे तेथे रात्र व दिवस होतात. जे स्त्री पुरुष संयुक्त व वियुक्त होऊन दुःखाच्या कारणांचा त्याग करतात व सुखाच्या कारणांचा स्वीकार करतात ते सदैव आनंदित असतात. ॥ ७ ॥