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ऋ॒तस्य॑ र॒श्मिम॑नु॒यच्छ॑माना भ॒द्रम्भ॑द्रं॒ क्रतु॑म॒स्मासु॑ धेहि। उषो॑ नो अ॒द्य सु॒हवा॒ व्यु॑च्छा॒स्मासु॒ रायो॑ म॒घव॑त्सु च स्युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtasya raśmim anuyacchamānā bhadram-bhadraṁ kratum asmāsu dhehi | uṣo no adya suhavā vy ucchāsmāsu rāyo maghavatsu ca syuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तस्य॑। र॒श्मिम्। अ॒नु॒ऽयच्छ॑माना। भ॒द्रम्ऽभ॑द्रम्। क्रतु॑म्। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। उषः॑। नः॒। अ॒द्य। सु॒ऽहवा॑। वि। उ॒च्छ॒। अ॒स्मासु॑। रायः॑। म॒घव॑त्ऽसु। च॒। स्यु॒रिति॑ स्युः ॥ १.१२३.१३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:13 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उषः) प्रातःसमय की वेला सी अलबेली स्त्री ! तूँ (अद्य) आज जैसे (ऋतस्य) जल की (रश्मिम्) किरण को प्रभात समय की वेला स्वीकार करती वैसे मन से प्यारे पति को (अनुयच्छमाना) अनुकूलता से प्राप्त हुई (अस्मासु) हम लोगों में (भद्रंभद्रम्, क्रतुम्) अच्छी-अच्छी बुद्धि वा अच्छे-अच्छे काम को (धेहि) धर (सुहवा) और उत्तम सुख देनेवाली होती हुई (नः) हम लोगों को (व्युच्छ) ठहरा जिससे (मघवत्सु) प्रशंसित धनवाले (अस्मासु) हम लोगों में (रायः) शोभा (च) भी (स्युः) हों ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे श्रेष्ठ स्त्री अपने-अपने पति आदि की यथावत् सेवा कर बुद्धि, धर्म और ऐश्वर्य्य को नित्य बढ़ाती हैं, वैसे प्रभात समय की वेला भी हैं ॥ १३ ॥इस सूक्त में प्रभात समय की वेला के दृष्टान्त से स्त्रियों के धर्म का वर्णन करने से इस सूक्त में कहे हुए अर्थ की पिछले सूक्त में कहे अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥यह १२३ वाँ सूक्त और ६ छठा वर्ग पूरा हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे उषर्वत्पत्नि त्वमद्य ऋतस्य रश्मिमुषाइव हृद्यं पतिमनुयच्छमानाऽस्मासु भद्रं भद्रं क्रतुं धेहि। सुहवा सती नोऽस्मान् व्युच्छ यतो मघवत्स्वस्मासु रायश्च स्युः ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) जलस्य (रश्मिम्) किरणम् (अनुयच्छमाना) अनुकूलतया प्राप्ता (भद्रंभद्रम्) कल्याणकल्याणकारकम् (क्रतुम्) प्रज्ञां कर्म वा (अस्मासु) (धेहि) (उषः) उषर्वद्वर्त्तमाने (नः) अस्मान् (अद्य) (सुहवा) सुष्ठु सुखप्रदा (वि) (उच्छ) (अस्मासु) (रायः) श्रियः (मघवत्सु) पूजितेषु धनेषु (च) (स्युः) ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सत्यः स्त्रियः स्वस्वपत्यादीन् यथावत् संसेव्य प्रज्ञाधर्मैश्वर्याणि नित्यं वर्द्धयन्ति तथोषसोऽपि वर्न्तते ॥ १३ ॥अत्रोषर्दृष्टान्तेन स्त्रीधर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ १३ ॥इति त्रयोविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी श्रेष्ठ स्त्री आपला पती व इतरांची यथायोग्य सेवा करून बुद्धी, धर्म, ऐश्वर्याला नित्य वाढविते तशी ही प्रभातवेळ आहे. ॥ १३ ॥