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पृ॒थू रथो॒ दक्षि॑णाया अयो॒ज्यैनं॑ दे॒वासो॑ अ॒मृता॑सो अस्थुः। कृ॒ष्णादुद॑स्थाद॒र्या॒३॒॑ विहा॑या॒श्चिकि॑त्सन्ती॒ मानु॑षाय॒ क्षया॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pṛthū ratho dakṣiṇāyā ayojy ainaṁ devāso amṛtāso asthuḥ | kṛṣṇād ud asthād aryā vihāyāś cikitsantī mānuṣāya kṣayāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥ १.१२३.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:123» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब १२३ एकसौ तेईसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में स्त्री-पुरुष के विषय को कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मानुषाय) मनुष्यों के इस (क्षयाय) घर के लिए (चिकित्सन्ती) रोगों को दूर करती हुई (विहायः) बड़ी प्रशंसित (अर्या) वैश्य की कन्या जैसे प्रातःकाल की वेला (कृष्णात्) अंधेरे से (उदस्थात्) ऊपर को उठती उदय करती है, वैसे विद्वान् ने (अयोजि) संयुक्त की अर्थात् अपने सङ्ग ली और वह (एनम्) इस विद्वान् को पतिभाव से युक्त करती अपना पति मानती तथा जिन स्त्री- पुरुषों का (दक्षिणायाः) दक्षिण दिशा से (पृथुः) विस्तारयुक्त (रथः) रथ चलता है, उनको (अमृतासः) विनाशरहित (देवासः) अच्छे-अच्छे गुण (आ, अस्थुः) उपस्थित होते हैं ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रातःसमय की वेला के गुणयुक्त अर्थात् शीतल स्वभाववाली स्त्री और चन्द्रमा के समान शीतल गुणवाला पुरुष हो, उनका परस्पर विवाह हो तो निरन्तर सुख होता है ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ दम्पत्योर्विषयमाह ।

अन्वय:

या मानुषाय क्षयाय चिकित्सन्ती विहाया अर्या उषाः कृष्णादुदस्थादिव विदुषाऽयोजि सा चैनं पतिं च युनक्ति ययोर्दक्षिणायाः पृथूरथश्चरति तावमृतासो देवास आऽस्थुः ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पृथुः) विस्तीर्णः (रथः) वाहनम् (दक्षिणायाः) दिशः (अयोजि) युज्यते (आ) (एनम्) (देवासः) दिव्यगुणाः (अमृतासः) मरणधर्मरहिताः (अस्थुः) तिष्ठन्तु (कृष्णात्) अन्धकारात् (उत्) (अस्थात्) ऊर्ध्वमुदेति (अर्या) वैश्यकन्या (विहायाः) महती (चिकित्सन्ती) चिकित्सां कुर्वती (मानुषाय) मनुष्याणामस्मै (क्षयाय) गृहाय ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। या उषर्गुणा स्त्री चन्द्रगुणश्च पुमान् भवेत् तयोर्विवाहे जाते सततं सुखं भवति ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात प्रभातवेळेच्या दृष्टान्ताबरोबर स्त्रियांच्या धर्माचे वर्णन करण्याने या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी प्रातःकाळच्या वेळेसारखी (उषेसारखी) अर्थात शीतल स्वभावाची स्त्री व चंद्रासारखा शीतल गुणाचा पुरुष असेल तर त्यांचा परस्पर विवाह झाला तर सदैव सुख मिळते. ॥ १ ॥