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म॒मत्तु॑ न॒: परि॑ज्मा वस॒र्हा म॒मत्तु॒ वातो॑ अ॒पां वृष॑ण्वान्। शि॒शी॒तमि॑न्द्रापर्वता यु॒वं न॒स्तन्नो॒ विश्वे॑ वरिवस्यन्तु दे॒वाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mamattu naḥ parijmā vasarhā mamattu vāto apāṁ vṛṣaṇvān | śiśītam indrāparvatā yuvaṁ nas tan no viśve varivasyantu devāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒मत्तु॑। नः॒। परि॑ऽज्मा। व॒स॒र्हा। म॒मत्तु॑। वातः॑। अ॒पाम्। वृष॑ण्ऽवान्। शि॒शी॒तम्। इ॒न्द्रा॒प॒र्व॒ता॒। यु॒वम्। नः॒। तत्। नः॒। विश्वे॑। व॒रि॒व॒स्य॒न्तु॒। दे॒वाः ॥ १.१२२.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:122» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अच्छे गुणों के विचार और व्यवहार का उपदेश करते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वसर्हा) निवास कराने की योग्यता को प्राप्त होता और (परिज्मा) पाये हुए पदार्थों को सब ओर से खाता जलाता हुआ अग्नि (नः) हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दित करावे वा (अपाम्) जलों की (वृषण्वान्) वर्षा करानेहारा (वातः) पवन हम लोगों को (ममत्तु) आनन्दयुक्त करावे। हे (इन्द्रापर्वता) सूर्य्य और मेघ के समान वर्त्तमान पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! (युवम्) तुम दोनों (नः) हम लोगों को (शिशीतम्) अतितीक्ष्ण बुद्धि से युक्त करो वा (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों के लिये (वरिवस्यन्तु) सेवन अर्थात् आश्रय करें, वैसे (तत्) उन सबको सत्कारयुक्त हम लोग निरन्तर करें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जैसे हम लोगों को प्रसन्न करें, वैसे हम लोग भी उन मनुष्यों को प्रसन्न करें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सद्गुणानां व्यवसायं व्यवहारं चाह ।

अन्वय:

यथा वसर्हा परिज्मा नो ममत्वपां वृषण्वान् वातो नो ममत्तु। हे इन्द्रापर्वतेव वर्त्तमानावध्यापकोपदेशकौ युवं नश्शिशीतं विश्वे देवा नो वरिवस्यन्तु तथा तत् तान् सर्वान् सत्कृतान् वयं सततं कुर्याम ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ममत्तु) हर्षयतु (नः) अस्मान् (परिज्मा) परितो जमत्यत्ति यः सोऽग्निः (वसर्हा) वसानां वासहेतूनामर्हकः। अत्र शकन्ध्वादिना पररूपम्। (ममत्तु) (वातः) वायुः (अपाम्) जलानाम् (वृषण्वान्) वृष्टिहेतुः (शिशीतम्) तीक्ष्णबुद्धियुक्तान् कुरुतम् (इन्द्रापर्वता) सूर्य्यमेघाविव (युवम्) युवाम् (नः) अस्मान् (तत्) (नः) अस्मभ्यम् (विश्वे) सर्वे (वरिवस्यन्तु) परिचरन्तु (देवाः) विद्वांसः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या यथाऽस्मान् प्रसादयेयुस्तथा वयमप्येतान् प्रीणयेम ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे आम्हाला प्रसन्न करतात त्यांना आम्हीही प्रसन्न करावे. ॥ ३ ॥