वांछित मन्त्र चुनें

स्वि॒ध्मा यद्व॒नधि॑तिरप॒स्यात्सूरो॑ अध्व॒रे परि॒ रोध॑ना॒ गोः। यद्ध॑ प्र॒भासि॒ कृत्व्याँ॒ अनु॒ द्यूनन॑र्विशे प॒श्विषे॑ तु॒राय॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svidhmā yad vanadhitir apasyāt sūro adhvare pari rodhanā goḥ | yad dha prabhāsi kṛtvyām̐ anu dyūn anarviśe paśviṣe turāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽइ॒ध्मा। यत्। व॒नऽधि॑तिः। अ॒प॒स्यात्। सूरः॑। अ॒ध्व॒रे। परि॑। रोध॑ना। गोः। यत्। ह॒। प्र॒ऽभासि॑। कृत्व्या॑न्। अनु॑। द्यून्। अन॑र्विशे। प॒शु॒ऽइषे॑। तु॒राय॑ ॥ १.१२१.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सज्जन मनुष्य ! तूने (यत्) जो ऐसी उत्तम क्रिया कि (स्विध्मा) जिससे सुन्दर सुख का प्रकाश होता वह (वनधितिः) वनों की धारणा अर्थात् रक्षा किई और जो (गोः) गौ की (रोधना) रक्षा होने के अर्थ काम किये हैं उनसे तू (अध्वरे) जिसमें हिंसा आदि दुःख नहीं हैं उस रक्षा के निमित्त (कृत्व्यान्) उत्तम कामों का (अनु, द्यून्) प्रतिदिन (सूरः) प्रेरणा देनेवाले सूर्यलोक के समान (अनर्विशे) लढ़ा आदि गाड़ियों में जो बैठना होता उसके लिये और (पश्विषे) पशुओं के बढ़ने की इच्छा के लिये और (तुराय) शीघ्र जाने के लिये (यत्) जो (ह) निश्चय से (प्रभासि) प्रकाशित होता है सो आप (पर्यपस्यात्) अपने को उत्तम-उत्तम कामों की इच्छा करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य पशुओं की रक्षा और बढ़ने आदि के लिये वनों को राख, उन्हीं में उन पशुओं को चरा, दूध आदि का सेवन कर खेती आदि कामों को यथावत् करें, वे राज्य के ऐश्वर्य से सूर्य के समान प्रकाशमान होते हैं और गौ आदि पशुओं के मारनेवाले नहीं ॥ ७ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सज्जन त्वया यद्या स्विध्मा वनधितिः कृता यानि गोरोधना कृतानि तैस्त्वमध्वरे कृत्व्याननुद्यून् सूर इवानर्विशे पश्विषे तुराय यद्ध प्रभासि तद्भवान् पर्यपस्यात् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्विध्मा) सुष्ठु इध्मा सुखप्रदीप्तिर्यया सा (यत्) या (वनधितिः) वनानां धृतिः (अपस्यात्) आत्मगोऽपांसि कर्माणीच्छेच् (सूरः) प्रेरकः सविता (अध्वरे) अविद्यमानोध्वरो हिंसनं यस्मिन् रक्षणे (परि) सर्वतः (रोधना) रक्षणार्थानि (गोः) धेनोः (यत्) यानि (ह) किल (प्रभासि) प्रदीप्यसे (कृत्व्यान्) कर्मसु साधून्। कृत्वीति कर्मना०। निघं० २। १। (अनु) (द्यून्) दिवसान् (अनर्विशे) अनस्सु शकटेषु विट् प्रवेशस्तस्मै। अत्र वा छन्दसीत्युत्त्वाभावः। (पश्विषे) पशूनामिषे वृद्धीच्छायै (तुराय) सद्यो गमनाय ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः पशुपालनवर्द्धनाद्याय वनानि रक्षित्वा तत्रैताञ्चारयित्वा दुग्धादीनि सेवित्वा कृष्यादीनि कर्माणि यथावत् कुर्युस्ते राज्यैश्वर्येण सूर्यइव प्रकाशमाना भवन्ति नेतरे गवादिहिंसकाः ॥ ७ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे पशूंचे रक्षण व वाढ इत्यादींसाठी वनांचे रक्षण करतात व त्यात पशूंना चारतात आणि दूध वगैरेचे सेवन करून शेतीचे काम करतात ते राज्यात सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान व ऐश्वर्यवान होतात. ते गाय इत्यादी पशूंचे हनन करणारे नसतात. ॥ ७ ॥