वांछित मन्त्र चुनें

तुभ्यं॒ पयो॒ यत्पि॒तरा॒वनी॑तां॒ राध॑: सु॒रेत॑स्तु॒रणे॑ भुर॒ण्यू। शुचि॒ यत्ते॒ रेक्ण॒ आय॑जन्त सब॒र्दुघा॑या॒: पय॑ उ॒स्रिया॑याः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tubhyam payo yat pitarāv anītāṁ rādhaḥ suretas turaṇe bhuraṇyū | śuci yat te rekṇa āyajanta sabardughāyāḥ paya usriyāyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तुभ्य॑म्। पयः॑। यत्। पि॒तरौ॑। अनी॑ताम्। राधः॑। सु॒ऽरेतः॑। तु॒रणे॑। भु॒र॒ण्यू इति॑। शुचि॑। यत्। ते॒। रेक्णः॑। अय॑जन्त। स॒बः॒ऽदुघा॑याः। पयः॑। उ॒स्रिया॑याः ॥ १.१२१.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:5


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सज्जन ! (यत्) जिस (तुरणे) दूध आदि पदार्थ के पीने को जल्दी करते हुए (तुभ्यम्) तेरे लिये (भुरण्यु) धारण और पुष्टि करनेवाले (पितरौ) माता-पिता (सुरेतः) जिससे उत्तम वीर्य उत्पन्न होता उस (पयः) दूध और (राधः) उत्तम सिद्धि करनेवाले धन की (अनीताम्) प्राप्ति करावें और जैसे (यत्) दूध आदि के पीने को जल्दी करते हुए जिस (ते) तेरे लिये दयालु गौ आदि पशुओं को राखनेवाले मनुष्य (सबर्दुघायाः) जिससे एकसा सुख धारण करना होता है, उस दूध को पूरा करनेहारी (उस्रियायाः) उत्तम पुष्टि देती हुई गौ के (शुचि) शुद्ध पवित्र (पयः) पीने योग्य दूध को (रेक्णः) प्रशंसित धन के समान (आ, अयजन्त) भली-भाँति देवें, वैसे उन मनुष्यों की तूँ निरन्तर सेवा कर और उनके उपकार को कभी मत तोड़ ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य लोग जैसे माता-पिता और विद्वानों की सेवा से धर्म के साथ सुखों की प्राप्त होवें, वैसे ही गौ आदि पशुओं की रक्षा से धर्म के साथ सुख पावें। इनके मन के विरुद्ध आचरण को कभी न करें क्योंकि ये सबका उपकार करनेवाले प्राणी हैं, इससे ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे सज्जन यद्यस्मै तुरणे तुभ्यं भुरण्यू पितरौ सुरेतः पयो राधश्चानीताम्। यद्यस्मै तुरणे ते तुभ्यं दयालवो गोरक्षका मनुष्याः सबर्दुघाया उस्रियायाः शुचि पयो रेक्णो धनं चायजन्तेव त्वमेतान् सततं सेवस्व कदाचिन्मा हिन्धि ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तुभ्यम्) (पयः) दुग्धम् (यत्) यस्मै (पितरौ) जननीजनकौ (अनीताम्) प्रापयेताम् (राधः) संसिद्धिकरं धनम् (सुरेतः) शोभनं रेतो वीर्य्यं यस्मात्तत् (तुरणे) दुग्धादिपानार्थं त्वरमाणाय। अत्र तुरण धातोः क्विप्। (भुरण्यू) धारणपोषणकर्त्तारौ (शुचि) पवित्रं शुद्धिकारकम् (यत्) यस्मै (ते) तुभ्यम् (रेक्णः) प्रशस्तं धनमिव (आ) (अयजन्त) ददतु (सबर्दुघायाः) समानं सुखं बिभर्त्ति येन दुग्धेन तत्सबस्तद् दोग्धि तस्याः। अत्र समानोपपदाद् भृञ्धातोर्विच् वर्णव्यत्ययेन भस्य वः। (पयः) पातुमर्हम् (उस्रियायाः) धेनोर्गोः ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या यथा मातापितृविदुषा सेवनेन धर्मेण सुखमाप्नुयुस्तथैव गवादीनां रक्षणेन धर्मेण सुखमाप्नुयुः। एतेषामप्रियाचरणं कदाचिन्न कुर्युः कुत एते सर्वस्योपकारकाः सन्त्यतः ॥ ५ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे जेव्हा माता-पिता व विद्वानांची धर्मयुक्त बनून सेवा करतात तसेच गाई इत्यादी पशूंचे रक्षण करून धर्माने सुख प्राप्त करतात. त्यांच्याबाबतीत कधी अप्रिय आचरण करू नये. कारण ते सर्वांवर उपकार करणारे आहेत. ॥ ५ ॥