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अ॒स्य मदे॑ स्व॒र्यं॑ दा ऋ॒तायापी॑वृतमु॒स्रिया॑णा॒मनी॑कम्। यद्ध॑ प्र॒सर्गे॑ त्रिक॒कुम्नि॒वर्त॒दप॒ द्रुहो॒ मानु॑षस्य॒ दुरो॑ वः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya made svaryaṁ dā ṛtāyāpīvṛtam usriyāṇām anīkam | yad dha prasarge trikakum nivartad apa druho mānuṣasya duro vaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। मदे॑। स्व॒र्य॑म्। दाः॒। ऋ॒ताय॑। अपि॑ऽवृतम्। उ॒स्रिया॑णाम्। अनी॑कम्। यत्। ह॒। प्र॒ऽसर्गे॑। त्रि॒ऽक॒कुप्। नि॒ऽवर्त॑त्। अप॑। द्रुहः॑। मानु॑षस्य। दुरः॑। व॒रिति॑ ॥ १.१२१.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (त्रिककुप्) मनुष्य ऐसा है कि जिसकी पूर्व आदि दिशा सेना वा पढ़ाने और उपदेश करनेवालों से युक्त हैं (अस्य) इस प्रत्यक्ष (मानुषस्य) मनुष्य के (उस्रियाणाम्) गौओं के (प्रसर्गे) उत्तमता से उत्पन्न कराने रूप (मदे) आनन्द के निमित्त (ऋताय) सत्य व्यवहार वा जल के लिये (अपीवृतम्) सुख और बलों से युक्त (स्वर्य्यम्) विद्या और अच्छी शिक्षा रूप वचनों में श्रेष्ठ (अनीकम्) सेना को (दाः) देवे तथा इन (द्रुहः) गो आदि पशुओं के द्रोही अर्थात् मारनेहारे पशुहिंसक मनुष्यों को (निवर्त्तत्) रोके, हिंसा न होने दे, (दुरः) उक्त दुष्टों के द्वारे (अप, वः) बन्द कर देवे (ह) वही चक्रवर्त्ती राजा होने को योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - वे ही राजपुरुष उत्तम होते हैं, जो प्रजास्थ मनुष्य और गौ आदि प्राणियों के सुख के लिये हिंसक दुष्ट पुरुषों की निवृत्ति कर धर्म में प्रकाशमान होते और जो परोपकारी होते हैं। जो अधर्म मार्गों को रोक धर्ममार्गों को प्रकाशित करते हैं, वे ही राजकामों के योग्य होते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

यद्यस्त्रिककुम् मनुष्योऽस्य मानुषस्योस्रियाणां च प्रसर्गे मदे ऋतायापीवृतं स्वर्य्यमनीकं दाः। एतान् द्रुहो निवर्त्तत् दुरोऽपवः स ह सम्राड् भवितुं योग्यो भवेत् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) प्रत्यक्षविषयस्य (मदे) आनन्दनिमित्ते सति (स्वर्य्यम्) स्वरेषु विद्यासुशिक्षितासु वाक्षु साधु (दाः) दद्यात्। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (ऋताय) सत्यलक्षणान्वितायोदकाय वा (अपिवृतम्) सुखबलैर्युक्तम् (उस्रियाणाम्) गवाम् (अनीकम्) सैन्यम् (यत्) यः (ह) खलु (प्रसर्गे) प्रकृष्ट उत्पादने (त्रिककुप्) त्रिभिः सेनाध्यापकोपदेशकैर्युक्ताः ककुभो दिशो यस्य सः (निवर्त्तत्) निवर्त्तयेत्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (अप) (द्रुहः) गोहिंसकान् शत्रून् (मानुषस्य) मनुष्यजातस्य (दुरः) द्वाराणि (वः) वृणुयात् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - त एव राजपुरुषा उत्तमा भवन्ति ये प्रजास्थानां मनुष्यगवादिप्राणिनां सुखाय हिंसकान् मनुष्यान् निर्वर्त्य धर्मे राजन्ते परोपकारिणश्च सन्ति। येऽधर्ममार्गान्निरुध्य धर्ममार्गान् प्रकाशयन्ति त एव राजकर्माण्यर्हन्ति ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - तेच राजपुरुष उत्तम असतात, जे प्रजा व गाय इत्यादी प्राण्यांच्या सुखासाठी हिंसक दुष्ट पुरुषांचा नाश करून धर्माचे पालन करतात व जे परोपकारी असतात व अधर्म मार्ग रोखतात आणि धर्ममार्गात चालतात तेच राज्यकार्यासाठी योग्य असतात. ॥ ४ ॥