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कदि॒त्था नॄँ: पात्रं॑ देवय॒तां श्रव॒द्गिरो॒ अङ्गि॑रसां तुर॒ण्यन्। प्र यदान॒ड्विश॒ आ ह॒र्म्यस्यो॒रु क्रं॑सते अध्व॒रे यज॑त्रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kad itthā nṝm̐ḥ pātraṁ devayatāṁ śravad giro aṅgirasāṁ turaṇyan | pra yad ānaḍ viśa ā harmyasyoru kraṁsate adhvare yajatraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कत्। इ॒त्था। नॄन्। पात्र॑म्। दे॒व॒ऽय॒ताम्। श्रव॑त्। गिरः॑। अङ्गि॑रसाम्। तु॒र॒ण्यन्। प्र। यत्। आन॑ट्। विशः॑। आ। ह॒र्म्यस्य। उ॒रु। क्रं॒स॒ते॒। अ॒ध्व॒रे। यज॑त्रः ॥ १.१२१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब १५ ऋचावाले एकसौ इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में स्त्री-पुरुष कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, यह उपदेश किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष ! तूँ(अध्वरे) न विनाश करने योग्य प्रजापालन रूप व्यवहार में (यजत्रः) सङ्ग करनेवाला (तुरण्यन्) शीघ्रता करता हुआ जैसे ज्ञान चाहनेहारा (नॄन्) सिखाने योग्य बालक वा मनुष्यों की (पात्रम्) पालना करे तथा (देवयताम्) चाहते (अङ्गिरसाम्) और विद्या के सिद्धान्त रस को पाये हुए विद्वानों की (यत्) जिन (गिरः) वेदविद्या की शिक्षारूप वाणियों को (श्रवत्) सुने, उनको (इत्था) इस प्रकार से (कत्) कब सुनेगा और जैसे धर्मात्मा राजा (हर्म्यस्य) न्यायघर के बीच वर्त्तमान हुआ विनय से (विशः) प्रजाजनों को (प्रानट्) प्राप्त होवे (उरु) और बहुत (आ, क्रंसते) आक्रमण करे अर्थात् उनके व्यवहारों में बुद्धि को दौड़ावे, इस प्रकार का कब होगा ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे स्त्री पुरुषो ! जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् सब मनुष्यादि को सत्य बोध कराते और झूठ से रोकते हुए उत्तम शिक्षा देते हैं, वैसे अपने सन्तान आदि को आप निरन्तर अच्छी शिक्षा देओ, जिससे तुम्हारे कुल में अयोग्य सन्तान कभी न उत्पन्न हों ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादौ स्त्रीपुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे पुरुष त्वमध्वरे यजत्रस्तुरण्यन् सन् यथा जिज्ञासुर्नॄन् पात्रं कुर्याद् देवयतामङ्गिरसां यद्या गिरः श्रवत्ताइत्था कच्छ्रोष्यसि। यथा च धार्मिको राजा हर्म्यस्य मध्ये वर्त्तमानः सन् विनयेन विशः प्रानडुर्वाक्रंसत इत्था कद्भविष्यसि ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कत्) कदा। छान्दसो वर्णलोपो वेत्याकारलोपः। (इत्था) अनेन प्रकारेण (नॄन्) प्राप्तव्यशिक्षान् (पात्रम्) पालनम् (देवयताम्) कामयमानानाम् (श्रवत्) शृणुयात् (गिरः) वेदविद्याशिक्षिता वाचः (अङ्गिरसाम्) प्राप्तविद्यासिद्धान्तरसानाम् (तुरण्यन्) त्वरन् (प्र) (यत्) याः (आनट्) अश्नुवीत। व्यत्ययेन श्नम् परस्मैपदं च। (विशः) प्रजाः (आ) (हर्म्यस्य) न्यायगृहस्य मध्ये (उरु) बहु (क्रंसते) क्रमेत (अध्वरे) अहिंसनीये प्रजापालनाख्ये व्यवहारे (यजत्रः) संगमकर्त्ता ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे स्त्रीपुरुषा यथा आप्ताः सर्वान् मनुष्यादीन् सत्यं बोधयन्तोऽसत्यान्निवारयन्तः सुशिक्षन्ते तथा स्वापत्यादीन् भवन्तः सततं सुशिक्षन्ताम्। यतो युष्माकं कुलेऽयोग्याः सन्तानाः कदाचिन्न जायेरन् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात स्त्री-पुरुष व राजा, प्रजा इत्यादींच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर या अर्थाची संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे स्त्री-पुरुषांनो ! जसे शास्त्रवेत्ते विद्वान सर्व माणसांना सत्याचा बोध करवितात व असत्य रोखून उत्तम शिक्षण देतात तसे आपल्या संतानांना तुम्ही निरंतर चांगले शिक्षण द्या. ज्यामुळे तुमच्या कुळात कधी अयोग्य संतान निर्माण होणार नाही. ॥ १ ॥