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प्र या घोषे॒ भृग॑वाणे॒ न शोभे॒ यया॑ वा॒चा यज॑ति पज्रि॒यो वा॑म्। प्रैष॒युर्न वि॒द्वान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra yā ghoṣe bhṛgavāṇe na śobhe yayā vācā yajati pajriyo vām | praiṣayur na vidvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। या। घोषे॑। भृग॑वाणे। न। शोभे॑। यया॑। वा॒चा। यज॑ति। प॒ज्रि॒यः। वा॒म्। प्र। इ॒ष॒ऽयुः। न। वि॒द्वान् ॥ १.१२०.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:120» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे समस्त विद्याओं में रमे हुए पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! (पज्रियः) पाने योग्य बोधों को प्राप्त (इषयुः) सब जनों के अभीष्ट सुख को प्राप्त होनेवाला मनुष्य (विद्वान्) विद्यावान् सज्जन के (न) समान (यया) जिस (वाचा) वाणी से (वाम्) तुम्हारा (प्र, यजति) अच्छा सत्कार करता है, उस वाणी से मैं (शोभे) शोभा पाऊँ, (प्र) जो विदुषी स्त्री (भृगवाणे) अच्छे गुणों से पक्की बुद्धिवाले विद्वान् के समान आचरण करनेवाले में (घोषे) उत्तम वाणी के निमित्त सत्कार करती (न) सी दीखती है, उस वाणी से मैं उक्त स्त्री का (प्र) सत्कार करूँ ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! आप उत्तम शास्त्र जाननेहारे श्रेष्ठ सज्जन के समान सबके सुख के लिये नित्य प्रवृत्त रहो, ऐसे विदुषी स्त्री भी हो। सब मनुष्य विद्याधर्म और अच्छे शीलयुक्त होते हुए निरन्तर शोभायुक्त हों। कोई विद्वान् मूर्ख स्त्री के साथ विवाह न करे और न कोई पढ़ी स्त्री मूर्ख के साथ विवाह करे, किन्तु मूर्ख मूर्खा से और विद्वान् मनुष्य विदुषी स्त्री से सम्बन्ध करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विनौ पज्रिय इषयुर्विद्वान्न यया वाचा वां प्रयजति तयाऽहं शोभे या विदुषी स्त्री भृगवाणे घोषे यजति न दृश्यते तयाऽहं तां प्रयजेयम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (या) विदुषी (घोषे) उत्तमायां वाचि (भृगवाणे) यो भृगुः परिपक्वधीर्विद्वानिवाचरति तस्मिन्। भृगुशब्दादाचारे क्विप् ततो नामधातोर्व्यत्ययेनात्मनेपदे शानच् छन्दस्युभयथेति शानच आर्द्धधातुकत्वाद् गुणः। (न) इव (शोभे) प्रदीप्तो भवेयम् (यया) (वाचा) विद्यासुशिक्षायुक्तया वाण्या (यजति) पूजयति (पज्रियः) यः पज्रान् प्राप्तव्यान् बोधानर्हति सः (वाम्) युवाम् (प्र) (इषयुः) इष्यते सर्वैर्जनैर्विज्ञायते यत्तद्याति प्राप्नोतीति। इष धातोर्घञर्थे कविधानमिति कः। तस्मिन्नुपपदे याधातोरौणादिकः कुः। (न) इव (विद्वान्) ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे अध्यापकोपदेशकौ भवन्तावाप्तवत्सर्वस्य कल्याणाय नित्यं प्रवर्त्तेताम्। एवं विदुषी स्त्र्यपि। सर्वे जना विद्याधर्मसुशीलतादियुक्ताः सन्तः सततं शोभेरन्। नैव कोऽपि विद्वानविदुष्या स्त्रिया सह विवाहं कुर्यात् न कापि खलु मूर्खेण सह विदुषी च किन्तु मूर्खो मूर्खया विद्वान् विदुष्या च सह सम्बन्धं कुर्यात् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे अध्यापक व उपदेशक विद्वानांनो तुम्ही उत्तम शास्त्र जाणणाऱ्या श्रेष्ठाप्रमाणे सर्वांच्या सुखासाठी सदैव प्रवृत्त व्हा. तसेच विदुषी स्त्रीनेही वागावे. सर्व माणसांनी विद्याधर्म व चांगले शील बनवून निरंतर शोभून दिसावे. कुणी विद्वानाने मूर्ख स्त्रीबरोबर विवाह करू नये. कुणी शिकलेल्या स्त्रीने मूर्खाबरोबर विवाह करू नये; परंतु मूर्खाने मूर्ख स्त्रीशी व विद्वानाने विदुषीबरोबर विवाह करावा. ॥ ५ ॥