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वि पृ॑च्छामि पा॒क्या॒३॒॑ न दे॒वान्वष॑ट्कृतस्याद्भु॒तस्य॑ दस्रा। पा॒तं च॒ सह्य॑सो यु॒वं च॒ रभ्य॑सो नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi pṛcchāmi pākyā na devān vaṣaṭkṛtasyādbhutasya dasrā | pātaṁ ca sahyaso yuvaṁ ca rabhyaso naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि। पृ॒च्छा॒मि॒। पा॒क्या॑। न। दे॒वान्। वष॑ट्ऽकृतस्य। अ॒द्भु॒तस्य॑। द॒स्रा॒। पा॒तम्। च॒। सह्य॑सः। यु॒वम्। च॒। रभ्य॑सः। नः॒ ॥ १.१२०.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:120» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्रा) दुःखों के दूर करने, पढ़ाने और उपदेश करनेहारे विद्वानो ! मैं (युवम्) तुम दोनों को (सह्यसः) अतीव विद्याबल से भरे हुए (रभ्यसः) अत्यन्त उत्तम पुरुषार्थयुक्त (पाक्या) विद्या और योग के अभ्यास से जिनकी बुद्धि पक गई उन (देवान्) विद्वानों के (न) समान (वषट्कृतस्य) क्रिया से सिद्ध किये हुए शिल्पविद्या से उत्पन्न होनेवाले (अद्भुतस्य) आश्चर्य्य रूप काम के विज्ञान के लिये प्रश्नों को (वि, पृच्छामि) पूछता हूँ (च) और तुम दोनों उनके उत्तर देओ जिससे मैं तुम्हारी सेवा करता हूँ (च) और तुम (नः) हमारी (पातम्) रक्षा करो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् जन नित्य बालक आदि वृद्ध पर्य्यन्त मनुष्यों को सिद्धान्त विद्याओं का उपदेश करें, जिससे उनकी रक्षा और उन्नति होवे और वे भी उनकी सेवा कर अच्छे स्वभाव से पूछ कर विद्वानों के दिये हुए समाधानों को धारण करें, ऐसे हिलमिल के एक दूसरे के उपकार से सब सुखी हों ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे दस्राश्विनावध्यापकोपदेशकावहं युवं युवां सह्यसो रभ्यसः पाक्या देवान्नेव वषट्कृतस्याद्भुतस्य विज्ञानाय प्रश्नान् विपृच्छामि युवां च तान् समाधत्तम्। यतोऽहं भवन्तौ सेवे युवां च नोऽस्मान् पातम् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (पृच्छामि) (पाक्या) विद्यायोगाभ्यासेन परिपक्वधियः। अत्राकारादेशः। (न) इव (देवान्) विदुषः (वषट्कृतस्य) क्रियानिष्पादितस्य शिल्पविद्याजन्यस्य (अद्भुतस्य) आश्चर्यगुणयुक्तस्य (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (पातम्) रक्षतम् (च) (सह्यसः) सहीयसोऽतिशयेन बलवतः। अत्र सह धातोरसुन् ततो मतुप् तत ईयसुनि विन्मतोरिति मतुब् लोपः। टेरिति टिलोपः। छान्दसो वर्णलोपो वेतीकारलोपः। (युवम्) युवाम् (च) (रभ्यसः) अतिशयेन रभस्विनः सततं प्रौढपुरुषार्थान्। पूर्ववदस्यापि सिद्धिः (नः) अस्मान् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वांसो नित्यमाबालवृद्धान् प्रति सिद्धान्तविद्या उपदिशेयुर्यतस्तेषां रक्षोन्नती स्याताम्। ते च तान् सेवित्वा सुशीलतया पृष्ट्वा समाधानानि दधीरन्। एवं परस्परमुपकारेण सर्वे सुखिनः स्युः ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान लोकांनी सदैव बालकापासून वृद्धापर्यंत माणसांना सिद्धांत विद्यांचा उपदेश करावा. ज्यामुळे त्यांचे रक्षण व उन्नती व्हावी व त्यांनीही त्यांची सेवा करावी. विद्वानांना नम्रतेने विचारून समाधानी व्हावे अशा प्रकारे मिळून मिसळून एक दुसऱ्यावर उपकार करून सुखी व्हावे. ॥ ४ ॥