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यो अ॒ग्निं दे॒ववी॑तये ह॒विष्माँ॑ आ॒विवा॑सति। तस्मै॑ पावक मृळय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo agniṁ devavītaye haviṣmām̐ āvivāsati | tasmai pāvaka mṛḻaya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। अ॒ग्निम्। दे॒वऽवी॑तये। ह॒विष्मा॑न्। आ॒ऽविवा॑सति। तस्मै॑। पा॒व॒क॒। मृ॒ळ॒य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:12» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त अर्थों ही का प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पावकः) पवित्र करनेवाले ईश्वर ! (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम-उत्तम पदार्थ वा कर्म करनेवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम-उत्तम गुण और भोगों की परिपूर्णता के लिये (अग्निम्) सब सुखों के देनेवाले आपको (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उस सेवन करनेवाले मनुष्य को आप (मृळय) सब प्रकार सुखी कीजिये॥१॥९॥यह जो (हविष्मान्) उत्तम पदार्थवाला मनुष्य (देववीतये) उत्तम भोगों की प्राप्ति के लिये (अग्निम्) सुख करानेवाले भौतिक अग्नि का (आविवासति) अच्छी प्रकार सेवन करता है, (तस्मै) उसको यह अग्नि (पावक) पवित्र करनेवाला होकर (मृळय) सुखयुक्त करता है॥२॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो मनुष्य अपने सत्यभाव कर्म और विज्ञान से परमेश्वर का सेवन करते हैं, वे दिव्यगुण पवित्रकर्म और उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होते हैं तथा जिससे यह दिव्य गुणों का प्रकाश करनेवाला अग्नि रचा है, उस अग्नि से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम उपकार लेने चाहिये, इस प्रकार ईश्वर का उपदेश है॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तावेवोपदिश्येते।

अन्वय:

हे पावक ! यो हविष्मान् मनुष्यो देववीतये त्वामग्निमाविवासति तस्मै त्वं मृडयेत्येकः। यो हविष्मान् मनुष्यो देववीतय इममग्निमाविवासति तस्मा अयं पावकोऽग्निर्मृडयतीति द्वितीयः॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) मनुष्यः (अग्निम्) सर्वसुखप्रापकमीश्वरं सुखहेतुं भौतिकं वा (देववीतये) देवानां दिव्यानां गुणानां भोगानां च वीतिर्व्याप्तिस्तस्यै (हविष्मान्) हवींष्युत्तमानि द्रव्याणि कर्माणि वा विद्यन्ते यस्य सः। अत्र प्रशंसार्थे मतुप्। (आविवासति) समन्तात्सेवते। विवासतीति परिचरणकर्मसु पठितम्। (निघं०३.५) (तस्मै) सेवकम्। अत्र कर्मणि चतुर्थी। (पावक) पुनाति पवित्रतां करोति तत्सम्बुद्धावीश्वर पवित्रहेतुरग्निर्वा (मृळय) सुखय सुखयति वा॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। ये मनुष्याः सत्येन भावेन कर्मणा विज्ञानेन च परमेश्वरं सेवन्ते, ते दिव्यगुणान् पवित्राणि कर्माणि कृत्वा सुखानि च प्राप्नुवन्ति, येनायं दिव्यगुणप्रकाशकोऽग्नी रचितस्तस्मान्मनुष्यैर्दिव्या उपकारा ग्राह्या इतीश्वरोपदेशः॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जी माणसे आपल्या सत्य भावाने, कर्माने व विज्ञानाने परमेश्वराचे ग्रहण करतात, त्यांना दिव्य गुण, पवित्र कर्म व उत्तम उत्तम सुख मिळते. ज्याने हा दिव्य गुणांचा प्रकाश करणारा अग्नी निर्माण केलेला आहे, त्या अग्नीचा माणसांनी उत्तम उपयोग करून घेतला पाहिजे, असा त्या परमेश्वराचा उपदेश आहे. ॥ ९ ॥