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घृता॑हवन दीदिवः॒ प्रति॑ ष्म॒ रिष॑तो दह। अग्ने॒ त्वं र॑क्ष॒स्विनः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ghṛtāhavana dīdivaḥ prati ṣma riṣato daha | agne tvaṁ rakṣasvinaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृत॑ऽआहवन। दी॒दि॒ऽवः॒। प्रति॑। स्म॒। रिष॑तः। द॒ह॒। अग्ने॑। त्वम्। र॒क्ष॒स्विनः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:12» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त अग्नि फिर भी क्या करता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (घृताहवन) जिसमें घी तथा जल क्रियासिद्ध होने के लिये छोड़ा जाता और जो अपने (दीदिवः) शुभ गुणों से पदार्थों को प्रकाश करनेवाला है, (त्वम्) वह (अग्ने) अग्नि (रक्षस्विनः) जिन समूहों में राक्षस अर्थात् दुष्टस्वभाववाले और निन्दा के भरे हुए मनुष्य विद्यमान हैं, तथा जो कि (रिषतः) हिंसा के हेतु दोष और शत्रु हैं, उनका (प्रति दह स्म) अनेक प्रकार से विनाश करता है, हम लोगों को चाहिये कि उस अग्नि को कार्यों में नित्य संयुक्त करें॥५॥
भावार्थभाषाः - जो अग्नि इस प्रकार सुगन्ध्यादि गुणवाले पदार्थों से संयुक्त होकर सब दुर्गन्ध आदि दोषों को निवारण करके सब के लिये सुखदायक होता है, वह अच्छे प्रकार काम में लाना चाहिये। ईश्वर का यह वचन सब मनुष्यों को मानना उचित है॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

घृताहवनो दीदिवानग्ने योऽग्नी रक्षस्विनो रिषतो दोषान् शत्रूंश्च प्रति पुनःपुनर्दहति स्म, सोऽस्माभिः स्वकार्य्येषु नित्यं सम्प्रयोज्योऽस्ति॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (घृताहवन) घृतमाज्यादिकं जलं चासमन्ताज्जुह्वति यस्मिन् सः (दीदिवः) यो दीव्यति शुभैर्गुणैर्द्रव्याणि प्रकाशयति सः। अयं ‘दिवु’ धातोः क्वसुप्रत्ययान्तः प्रयोगः (प्रति) वीप्सार्थे (स्म) प्रकारार्थे (रिषतः) हिंसाहेतुदोषान् (दह) दहति। अत्र व्यत्ययः। (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (त्वम्) सः (रक्षस्विनः) रक्षांसि दुष्टस्वभावा निन्दिता मनुष्या विद्यन्ते येषु सङ्घातेषु तान्॥५॥
भावार्थभाषाः - एवं सुगन्ध्यादिगुणयुक्तेन द्रव्येण संयुक्तोऽयमग्निः सर्वान् दुर्गन्धादिदोषान् निवार्य्य सर्वेभ्यः सुखकारी भवतीतीश्वर आह॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अग्नी या प्रकारे सुगंध इत्यादी गुणयुक्त पदार्थांनी संयुक्त होऊन सर्व दुर्गंध इत्यादी दोषांचे निवारण करून सर्वांसाठी सुखदायक असतो, त्याला चांगल्या कामात वापरले पाहिजे. ईश्वराचे हे वचन सर्व माणसांनी मानले पाहिजे. ॥ ५ ॥