वांछित मन्त्र चुनें

अ॒ग्निम॑ग्निं॒ हवी॑मभिः॒ सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म्। ह॒व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnim-agniṁ havīmabhiḥ sadā havanta viśpatim | havyavāham purupriyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्ऽअ॑ग्निम्। हवी॑मऽभिः। सदा॑। ह॒व॒न्त॒। वि॒श्पति॑म्। ह॒व्य॒ऽवाह॑म्। पु॒रु॒ऽप्रि॒यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:12» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में दो प्रकार के अग्नि का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे हम लोग (हवीमभिः) ग्रहण करने योग्य उपासनादिकों तथा शिल्पविद्या के साधनों से (पुरुप्रियम्) बहुत सुख करानेवाले (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालन हेतु और (हव्यवाहम्) देने-लेने योग्य पदार्थों को देने और इधर-उधर पहुँचानेवाले (अग्निम्) परमेश्वर प्रसिद्ध अग्नि और बिजुली को (वृणीमहे) स्वीकार करतें हैं, वैसे ही तुम लोग भी सदा (हवन्त) उस का ग्रहण करो॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। और पिछले मन्त्र से वृणीमहे इस पद की अनुवृत्ति आती है। ईश्वर सब मनुष्यों के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्यो ! तुम लोगों को विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप तथा प्रत्यक्ष भौतिक अग्नि से कलाकौशल आदि सिद्ध करके इष्ट सुख सदैव भोगने और भुगवाने चाहियें॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ द्विविधोऽग्निरुपदिश्यते।

अन्वय:

यथा वयं हवीमभिः पुरुप्रियं विश्पतिं हव्यवाहमग्निमग्निं वृणीमहे, तथैवैतं यूयमपि सदा हवन्त गृह्णीत॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) परमेश्वरम् (अग्निम्) विद्युद्रूपम् (हवीमभिः) ग्रहीतुं योग्यैरुपासनादिभिः शिल्पसाधनैर्वा। ‘हु दानादानयो’रित्यस्मात् अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०३.२.७५) इति मनिन्, बहुलं छन्दसीतीडागमश्च। (सदा) सर्वस्मिन्काले (हवन्त) गृह्णीत (विश्पतिम्) विशः प्रजास्तासां स्वामिनं पालनहेतुं वा (हव्यवाहम्) होतुं दातुमत्तुमादातुं च योग्यानि ददाति वा यानादीनि वस्तूनीतस्ततो वहति प्रापयति तम् (पुरुप्रियम्) बहूनां विदुषां प्रीतिजनको वा पुरूणि बहूनि प्रियाणि सुखानि भवन्ति यस्मात्तम्॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वस्मान्मन्त्राद् ‘वृणीमहे’ इति पदमनुवर्त्तते। ईश्वरः सर्वान्प्रत्युपदिशति-हे मनुष्या युष्माभिर्विद्युदाख्यस्य प्रसिद्धस्याग्नेश्च सकाशात् कलाकौशलादिसिद्धिं कृत्वाऽभीष्टानि सुखानि सदैव भोक्तव्यानि भोजयितव्यानि चेति॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. मागच्या मंत्रातील ‘वृणीमहे’ या पदाची अनुवृत्ती होते. ईश्वर सर्व माणसांसाठी उपदेश करतो की - हे माणसांनो! तुम्हाला विद्युत अर्थात वीज व प्रत्यक्ष भौतिक अग्नीने कलाकौशल्य इत्यादी सिद्ध करून इष्ट सुख सदैव भोगले व भोगविले पाहिजे. ॥ २ ॥