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यु॒वं रे॒भं परि॑षूतेरुरुष्यथो हि॒मेन॑ घ॒र्मं परि॑तप्त॒मत्र॑ये। यु॒वं श॒योर॑व॒सं पि॑प्यथु॒र्गवि॒ प्र दी॒र्घेण॒ वन्द॑नस्ता॒र्यायु॑षा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ rebham pariṣūter uruṣyatho himena gharmam paritaptam atraye | yuvaṁ śayor avasam pipyathur gavi pra dīrgheṇa vandanas tāry āyuṣā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। रे॒भम्। परि॑ऽसूतेः। उ॒रु॒ष्य॒थः॒। हि॒मेन॑। घ॒र्मम्। परि॑ऽतप्तम्। अत्र॑ये। यु॒वम्। श॒योः। अ॒व॒सम्। पि॒प्य॒थुः॒। गवि॑। प्र। दी॒र्घेण॑। वन्द॑नः। ता॒रि॒। आयु॑षा ॥ १.११९.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:21» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सब विद्याओं में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! जैसे (युवम्) तुम दोनों (अत्रये) आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन दुःख जिसमें नहीं हैं, उस उत्तम सुख के लिये (परिसूतेः) सब ओर से दूसरे विद्या जन्म में प्रसिद्ध हुए विद्वान् से विद्या को पाये हुए (परितप्तम्) सब प्रकार क्लेश को प्राप्त (रेभम्) समस्त विद्या की प्रशंसा करनेवाले विद्वान् मनुष्य को (हिमेन) शीत से (घर्मम्) घाम के समान (उरुष्यथः) पालो अर्थात् शीत से घाम जैसे बचाया जावे वैसे पालो (युवम्) तुम दोनों (गवि) पृथिवी में (शयोः) सोते हुए की (अवसम्) रक्षा आदि को (पिप्यथुः) बढ़ाओ (वन्दनः) प्रशंसा करने योग्य व्यवहार (दीर्घेण) लम्बी बहुत दिनों की (आयुषा) आयु से तुम दोनों ने (तारि) पार किया वैसा हम लोग भी (प्र) प्रयत्न करें ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषो ! जैसे शीत से गरमी मारी जाती है वैसे अविद्या को विद्या से मारो, जिससे आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन प्रकार के दुःख नष्ट हों। जैसे धार्मिक राजपुरुष चोर आदि को दूरकर सोते हुए प्रजाजनों की रक्षा करते हैं, और जैसे सूर्य्य चन्द्रमा सब जगत् को पुष्टि देकर जीवने के आनन्द को देनेवाले हैं, वैसे इस जगत् में प्रवृत्त होओ ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना यथा युवमत्रये परिसूतेः प्राप्तविद्यं परितप्तं रेभं विद्वांसं जनं हिमेन धर्ममिवोरुष्यथः। युवं गवि शयोरवसं पिप्यथुर्वन्दनो दीर्घेणायुषा युवाभ्यां तारि तथा वयमपि प्रयतेमहि ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवाम् (रेभम्) सकलविद्यास्तोतारम् (परिसूतेः) परितः सर्वतो द्वितीये विद्याजन्मनि प्रादुर्भूतात् (उरुष्यथः) रक्षथ। उरुष्यती रक्षाकर्मा। निरु० ५। २३। (हिमेन) शीतेन (घर्मम्) सूर्य्यतापम् (परितप्तम्) सर्वतः संक्लिष्टम् (अत्रये) अविद्यमानान्याध्यात्मिकादीनि त्रीणि दुःखानि यस्मिंस्तस्मै सुखाय (युवम्) युवाम् (शयोः) शयानस्य (अवसम्) रक्षणादिकम् (पिप्यथुः) वर्धयतम् (गवि) पृथिव्याम् (प्र) (दीर्घेण) प्रलम्बितेन (वन्दनः) स्तोतुमर्हः (तारि) तीर्यते (आयुषा) जीवनेन ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ यथा शीतेनोष्णता हन्यते तथाऽविद्या विद्यया हतं यत आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि दुःखानि नश्येयुः। यथा धार्मिकराजपुरुषाश्चोरादीन् निवार्य शयानान् प्रजाजनान् रक्षन्ति यथा च सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं जगत् संपोष्य जीवनप्रदौ स्तस्तथाऽस्मिञ्जगति प्रवर्त्तेथाम् ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे, हे विवाहित स्त्री-पुरुषांनो! जशी थंडीमुळे उष्णता कमी होते तसे अविद्येला विद्येने दूर करा. ज्यामुळे आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक तीन प्रकारचे दुःख नाहीसे होते. जसे धार्मिक राजपुरुष चोरांपासून निद्रिस्त जनतेचे रक्षण करतात व सूर्यचंद्र सर्व जगाला पुष्ट करून जीवनाचा आनंद देतात तसे या जगात वागा. ॥ ६ ॥