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प्र॒वद्या॑मना सु॒वृता॒ रथे॑न॒ दस्रा॑वि॒मं शृ॑णुतं॒ श्लोक॒मद्रे॑:। किम॒ङ्ग वां॒ प्रत्यव॑र्तिं॒ गमि॑ष्ठा॒हुर्विप्रा॑सो अश्विना पुरा॒जाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pravadyāmanā suvṛtā rathena dasrāv imaṁ śṛṇutaṁ ślokam adreḥ | kim aṅga vām praty avartiṁ gamiṣṭhāhur viprāso aśvinā purājāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒वत्ऽया॑मना। सु॒ऽवृता॑। रथे॑न। द॒स्रौ॒। इ॒मम्। शृ॒णु॒त॒म्। श्लोक॑म्। अद्रेः॑। किम्। अ॒ङ्ग। वा॒म्। प्रति॑। अव॑र्तिम्। गमि॑ष्ठा। आ॒हुः। विप्रा॑सः। अ॒श्वि॒ना॒। पु॒रा॒ऽजाः ॥ १.११८.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:118» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:18» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (प्रवद्यामना) भली-भाँति चलनेवाले (सुवृता) अच्छे-अच्छे साधनों से युक्त (रथेन) विमान आदि रथ से (अद्रेः) पर्वत के ऊपर जाने और (दस्रौ) दान आदि उत्तम कामों के करनेवाले (अश्विना) सभासेनाधीशो वा हे स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों (इमम्) इस (श्लोकम्) वाणी को (शृणुतम्) सुनो कि (अङ्ग) हे उक्त सज्जनो ! (पुराजाः) अगले वृद्ध (विप्रासः) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् जन (गमिष्ठा) अति चलते हुए तुम दोनों के (प्रति) प्रति (किम्) किस (अवर्त्तिम्) न वर्त्तने न कहने योग्य निन्दित व्यवहार का (आहुः) उपदेश करते हैं अर्थात् कुछ भी नहीं ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजा आदि स्त्री-पुरुषो ! तुम जो-जो उत्तम विद्वानों ने उपदेश किया उसी-उसी को स्वीकार करो क्योंकि सत्पुरुषों के उपदेश के विना संसार में मनुष्यों की उन्नति नहीं होती। जहाँ उत्तम विद्वानों के उपदेश नहीं प्रवृत्त होते हैं, वहाँ सब अज्ञानरूपी अंधेरे से ढपे ही होकर पशुओं के समान वर्त्तावकर दुःख को इकट्ठा करते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे प्रवद्यामना सुवृता रथेनाद्रेरुपरि गच्छन्तौ दस्रावश्विना वां युवामिमं श्लोकं शृणुतम्। अङ्ग हे सभासेनेशौ पुराजा विप्रासो गमिष्ठा वां प्रति किमवर्त्तिमाहुः किमपि नेत्यर्थः ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रवद्यामना) प्रकृष्टं याति गच्छति यस्तेन (सुवृता) शोभनैः साधनैः सह वर्त्तमानेन (रथेन) विमानादियानेन (दस्रौ) दातारौ (इमम्) (शृणुतम्) (श्लोकम्) वाचम्। श्लोक इति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (अद्रेः) पर्वतस्य (किम्) (अङ्ग) (वाम्) युवाम् (प्रति) (अवर्त्तिम्) अवाच्यम् (गमिष्ठा) अतिशयेन गन्तारौ (आहुः) उपदिशन्ति (विप्रासः) मेधाविनो विद्वांसः (अश्विना) (पुराजाः) पूर्वं जाता वृद्धाः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे राजादयः स्त्रीपुरुषा यूयं यद्यदाप्तैरुपदिश्यते तत्तदेव स्वीकुरुत। नहि सत्पुरुषोपदेशमन्तरा जगति जनानामुन्नतिर्जायते, यत्राप्तोपदेशा न प्रवर्त्तन्ते तत्रान्धकारावृताः सन्तः पशुवद्वर्त्तित्वा दुःखं सञ्चिन्वन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा इत्यादी स्त्री-पुरुषांनो! जो जो विद्वानांनी उपदेश केलेला आहे त्याचाच स्वीकार करा. कारण सत्पुरुषांच्या उपदेशाशिवाय संसारात माणसांची उन्नती होत नाही. जेथे उत्तम विद्वानांचे उपदेश होत नाहीत. तेथे सर्वजण अज्ञानरूपी अंधकाराने आवृत्त झालेले असतात व पशूंप्रमाणे वर्तन करून दुःखांचा संचय करतात. ॥ ३ ॥