वांछित मन्त्र चुनें

आ वां॒ रथो॑ अश्विना श्ये॒नप॑त्वा सुमृळी॒कः स्ववाँ॑ यात्व॒र्वाङ्। यो मर्त्य॑स्य॒ मन॑सो॒ जवी॑यान्त्रिबन्धु॒रो वृ॑षणा॒ वात॑रंहाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ ratho aśvinā śyenapatvā sumṛḻīkaḥ svavām̐ yātv arvāṅ | yo martyasya manaso javīyān trivandhuro vṛṣaṇā vātaraṁhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वा॒म्। रथः॑। अ॒श्वि॒ना॒। श्ये॒नऽप॑त्वा। सु॒ऽमृ॒ळी॒कः। स्वऽवा॑न्। या॒तु॒। अ॒र्वाङ्। यः। मर्त्य॑स्य। मन॑सः। जवी॑यान्। त्रि॒ऽब॒न्धु॒रः। वृ॒ष॒णा॒। वात॑ऽरंहाः ॥ १.११८.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:118» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ११ ऋचावाले एकसौ अठारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् स्त्री-पुरुष क्या करें, यह विषय कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणा) बलवान् (अश्विना) शिल्प कामों के जाननेवाले स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों को (यः) जो (त्रिबन्धुरः) त्रिबन्धुर अर्थात् जिसमें नीचे, बीच में और ऊपर बन्धन हों (श्येनपत्वा) वाज पखेरू के समान जानेवाला (वातरंहाः) जिसका पवन समान वेग (मर्त्यस्य) मनुष्य के (मनसः) मन से भी (जवीयान्) अत्यन्त धावने और (सुमृडीकः) उत्तम सुख देनेवाला (स्ववान्) जिसमें प्रशंसित भृत्य वा अपने पदार्थ विद्यमान हैं, ऐसा (रथः) रथ है, वह (अर्वाङ्) नीचे (आ, यातु) आवे ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष जब ऐसे यान को उत्पन्न कर उपयोग में लावें तब ऐसा कौन सुख है, जिसको वे सिद्ध नहीं कर सकें ॥ १ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अस्यादौ विद्वत्स्त्रीपुरुषौ किं कुर्य्यातामित्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे वृषणाऽश्विना वां यस्त्रिबन्धुरः श्येनपत्वा वातरंहा मर्त्यस्य मनसो जवीयान् सुमृडीकः स्ववान् रथोऽस्ति सोऽर्वाङ्ङायातु ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वाम्) युवयोः (रथः) (अश्विना) शिल्पविदौ दम्पती (श्येनपत्वा) श्येनइव पतति। अत्र पतधातोरन्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति वनिप्। (सुमृडीकः) सुष्ठुसुखयिता (स्ववान्) प्रशस्ताः स्वे भृत्याः पदार्था वा विद्यन्ते यस्मिन् (यातु) गच्छतु (अर्वाङ्) अधः (यः) (मर्त्यस्य) (मनसः) (जवीयान्) (त्रिबन्धुरः) त्रयो बन्धुरा अधोमध्योर्ध्वं बन्धा यस्मिन् (वृषणा) बलिष्ठौ (वातरंहाः) वात इव रंहो गमनं यस्य ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीपुरुषौ यदेदृशे यानं निर्मायोपयुञ्जीयातां तदा किं तत्सुखं यत्साद्धुं न शक्नुयाताम् ॥ १ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात स्त्री-पुरुष व राजा प्रजेच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

भावार्थभाषाः - स्त्री-पुरुष जेव्हा यान निर्माण करून उपयोगात आणतील तेव्हा असे कोणते सुख आहे जे ते सिद्ध करू शकत नाहीत? ॥ १ ॥